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________________ चतुर्थ अध्यायः॥ २०५ गेहूँ का यथायोग्य खाना अधिक लाभदायक है, गेहूँ की मैदा पचने में भारी होती है इसलिये मन्दाग्निवाले लोगों को मैदे की रोटी तथा पूडी नहीं खानी चाहिये, गेहूँ के आटे से बहुत से पदार्थ बनते है, गेहूँ की राव तथा पतली घाट पचने में हलकी होती है अर्थात् घाट की अपेक्षा रोटी भारी होती है, एवं पूडी, हलुआ (शीरा), लड्डु, मगध और गुलपपडी, इन पदार्थों में पूर्व २ की अपेक्षा उत्तरोत्तर पचने में भारी होते है, घी के साथ खाने से गेहूँ वादी नहीं करता है ॥ बाजरी-गर्म, रूक्ष, पुष्ट, हृदय को हितकारी, स्त्रियो के काम को बढ़ानेवाली, पचने में भारी और वीर्य को हानि पहुँचानेवाली है ॥ उपयोगबाजरी गर्म होने से पित्त को खराब करती है, इसलिये पित्त प्रकृतिवाले लोगो को इससे बचना चाहिये, रूक्ष होने से यह कुछ वायु को भी करती है, जिन २ देशों में बाजरी की उत्पत्ति अधिक होती है तथा दूसरे अन्न कम पैदा होते हैं वहा के लोगों को नित्य के अभ्यास से बाजरी ही पथ्य हो जाती है। ___ यद्यपि पोषण का तत्त्व बाजरी में भी गेहूँ के ही लगभग है तथापि गेहूँ की अपेक्षा चरबी का तत्व इस में विशेष है इस लिये घी के विना इस का खाना हानि करता है । ज्वार-ठढी, मीठी, हलकी, रूक्ष और पुष्ट है ॥ उपयोग-ज्वार में बाजरी के समान ही पोषण का तत्व है तथा चरबी का भाग भी बाजरी के ही समान है, ज्वार करड़ी और रूक्ष है इस लिये वह वायु करती है परन्तु नित्य का अभ्यास होने से मरहठे, कुणबी तथा गुजरात और काठियावाड़ आदि देशों के निवासी गरीब लोग प्रायः ज्वार और अरहर (तूर ) की दाल से ही अपना निर्वाह करते है ॥ मूंग-ठंढा, ग्राही, हलका, खादिष्ट, कफ पित्त को मिटानेवाला और आखों को हितकारी है परन्तु कुछ वायु करता है । उपयोग-दाल की सब जातियों में मूग की दाल उत्तम होती है, क्योंकि मूंग की दाल तथा उस का जल प्रायः सब ही रोगों में पथ्य है और दूध की गर्ज ( आवश्यकता) को पूर्ण करता है किन्तु विचार कर देखा जावे तो यह दूध की अपेक्षा भी- अधिक गुण १-मुर्शिदावादी ओसवाल लोगों के यहा प्रतिदिन खुराक में मैदा का उपयोग होता है और दाल तथा शाकादिमें वहा वाले अमचुर वहुत डालते हैं जिस से पित्त बढता है-सत्य तो यह है कि ये दोनो खुराके निर्वलता की हेतु हैं परन्तु उन लोगों में प्रात काल प्राय दूध और वादाम की कतली के खाने की चाल है इस लिये उन के जीवन का आवश्यक तत्व कायम रहता है तथापि ऊपर कही हुई दोनों वस्तुयें अपना प्रभाव दिखलाती रहती हैं। २-जैसे बीकानेर के राज्य में वाजरी की ही विशेष खपत है, मौठ, वाजरी और मतीरे जैसे इस जमीन में होते हैं वैसे और कहीं भी नहीं होते हैं ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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