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________________ ( १९७ ) पुरुष भी छोड़ देते हैं । सा कृतज्ञ भी बनना चाहिये । २०-परहितार्थ भारी-सब जीनें का हितैपो होना श्रावक का मुख्य धर्म है-वा-जिस प्रकार उन जीवों को शान्ति पहुंचे थवा घन्य जीवों के कष्ट दूर होवे उसी मकार श्रावक को करना चाहिए । परोपकार ही मुख्य धम है जो परापकार नहीं कर सकता उस का जीवन संग्गर में भारं रूप ही माना जाता है-ज्ञान में माथ परोपकार करना यह परम शुरवीरता का लक्षण है। परोपकारी सर्व स्थानों पर पूजनीय वन जाता है । तीर्थकरों का नाम आज कल इस लिये लिया जा रहा है कि-उन्होंने असीम भर संसार भर में उपार किया. लाखों जीवों को सन्मार्ग चे स्थापन किया उसी कारण से वह मदा अमर हैं और सब जीवों के आश्रय भूत हैं मतः परहितार्थकारी बनना गृहस्थ का मुख्य धर्म है। - २१-मुघलत-माता पिता-गुरु आदि की चेतना देख कर उनकी इच्छानुसार कार्य करने और धनको प्रसन्न रखना यही लन्धन नठा है तया धर्म दानादि में भग्रणीय बनना इतना से नहीं किन्तु धर्म कार्यों में
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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