SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचायंधी दुस किये गए हत्यहीन संपों मा एक सम्मापास्त कयानक है। पर प्रश्न उठता है बरमान रसना इतना विषारत और विपरिगम्य यो क्या मतभेद रखना माराध कर दिया जा सकता है, मग मास्त्रीय का प्रथममन करके इसे पाप और नरक में ले जाने वाला घोषित कर दिन जाए ? न रहेगे मतभेद न होगी यह गुन खरावी और प्रशान्ति । सेकिन रामाधान मणे नहीं होगा । मगर मारमी के सोचने की फोरम स्थिर करने की क्षमता पर समाज का कानन प्रंश लगायेगा, तो कानुन जहिल जायेगी और यदि धर्मपीठ से इस पर प्रतिबन्ध लगाने की माग उठी तो मनुष्य धर्म से टक्कर लेने में भी हिचकेगा नहीं। धर्म ने जदया मानव को सोनने और देखने से मना करने की कोशिश की है, वो उन १ जय का मुंह देखना पस है। अपना स्वतन्त्र मत बनाने और मदद का पर करने की स्वतन्त्रता तो मानव को देनी ही होगी, जो पात्र हैं उनकी भा भार को पात्र नहीं हैं उनको भी। फिर इसे निविष कैसे किया जाए ? विगत तर्क से तो सबका म: करना सम्भव है नही, और स्त्र-बल से भी एकमत को प्रतिष्टा * हमेशा असफल ही रहे हैं। क्रिया, फिर प्रतिक्रिया-फिर प्रति प्रतिकिरा. मौर फिर जवाबी हमले । मतों और मतभेदो का अन्त इमसे कभी हुआ ऐसी अवस्था मे प्राचार्यश्री तुलसी का सत्र कि 'मतभेद के साथ मनोभद. जाए, मुझे अपूर्व समाधानकारक मालम देता है। विप-बीज को निाव : का इससे मधिक पहिसक, यथार्थवादी मोर प्रभावकारी उपाय मेरी नज" नहीं गुजरा। भारत के युग-द्रष्टा ऋषि इसके उपरान्त भी में प्राचार्य श्री तलसी से अनेक बार मिला, लेकिन का अपने मतभेदों की चर्चा मैंने नहीं की। भिन्न मुण्ड में भिन्न गति ता है' मेरे अनेक विश्वास हैं, उनके अनेक प्राधार हैं, उनके साथ अनेक ममा सुत्र-पयड है । मभी के होते हैं । लेकिन इन सब भेदों से मनात एक ऐसा मा हिए, जहां हम परस्पर सहयोग से काम कर सकें। मैं समझा। -1 की जाए तो समान माधारों की कमी नहीं रह सकती।
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy