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________________ यीकृष्ण के प्राश्वासन की पूर्ति निषेध विधि से प्रभावक मापका पादर्श शान-योग, भक्ति-योग प्रयवा कर्म-योग कुछ भी हो, अपने महम् को मारना होगा, मिटाना होगा । एक बार यह अनुभूति हो जाए कि पापका पहम् मिट गया, केवल चिभास शेष रह गया है, जो अपना जीवन पौर प्रकाश पारमायिक से प्राप्त करता है। पारमाधिक और ईश्वर एक ही हैं, तर माया अस्तित्वहीन प्रहम् के प्रति प्रेम अपने पाप नष्ट हो आएमा । भगवान् श्री रमण महषि के समान सब महात्मा यही कहते हैं । इसलिए हम सब प्रयतों का पालन करें, जिनके बिना न तो भौतिक मोर न प्राध्यात्मिक पोवन की उपलपि हो सकती है। प्रणवत्त की निषेधात्मक प्रतिज्ञाएँ विधायक प्रतिमानों से अधिक प्रभावकारी हैं और वे न केवल धर्म और प्राध्यात्मिक साधना के प्रेमियों के लिए प्रत्युव सभी मानवता के प्रेमियों के लिए पूरी नतिक पारार सहिता बन सकती है। भगवान को प्रमोरणीमान् महतो महोयान कहा है। धात्मा हृदय के भन्तरतम मे सा जागृत और प्रशासमान रहता है, इसलिए वह मनुष्य के हाथपाद की अपेक्षा अधिक निकट है और यदि भानवता इस बात को सदा ध्यान में तो मानव अपने सह-मानों को धोखा नही दे सकता और हानि नहीं पा साता। पदि वह ऐसा करता है तो स्वम अपनी भात्मा को ही धोखा देगा भपका हानि पहुँचाएगा, जो उसे रखना प्रिय होता है।
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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