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________________ तीर्थंकरों के समय का वर्तन ६३ क्रान्ति ला दी है। पुरातन जैन परम्परा में लालन होने पर भी उन्होंने जैन-धर्म को प्राधुनिक, उदार और कान्तिकारी रूप दिया है, जिससे कि हमारी भाज की श्रावश्यकता की पूर्ति हो सके अथवा यों कह सकते हैं कि उन्होने जैन धर्म के अपनी स्वर्ण से सत्र मेल हटा दिया है पर उसे अपने उज्ज्वल रूप में प्रस्तुत किया है जैसा कि वह तोर्थंकरों के समय मे था । प्रेम सरल और महिमा में हमको उस समय विरोधाभास दिखाई देता है, जब हम उनके एक साथ अस्तित्व की कल्पना करते हैं, किन्तु वे वास्तविक जीवन मे विद्यमान हैं और जीवन के उस दर्शन में भी है, जिसका प्रतिपादन प्राचार्यश्री तुलसी ने किया है । यद्यपि यह श्रमगत प्रतीत होगा, किन्तु यह एक तथ्य है कि विज्ञान पौर सभ्यता के जो भी डावे हो, मनुष्य तभी प्रगति कर सकता है, जब वह माध्यात्मिकता को अपनाएगा और अपने जीवन को प्रेम, सत्य भोर महिंसा की त्रिवेणी में प्लावित करेगा । जब हम प्रकार के जीवन को बदल डालने वाले व्यावहारिक दर्शन का न केवल प्रतिपादन किया जाता है प्रत्युत उसे दैनिक जीवन में कार्यान्वित किया जाता है तो बाहर और भीतर से विशेष होगा हो । जुव्रत ऐसा ही दर्शन है, किन्तु उसके सिद्धान्तों में दृढ निष्ठा इस पथ पर चलने वाले व्यक्ति को बदल देगी । भवत पात्म-वृद्धि और मात्म-उन्नति की प्रत्रिया है । उसके द्वारा व्यक्ति बो समस्त विसंगतियां लुप्त हो जाती हैं और वह उस पार्थिव उथल-पुथल में से पधिक शुद्ध, श्रेष्ठ और शान्त बन कर निकलता है पोर जीवन के पथ का सच्चा यात्री बनता है । प्राचार्य श्री तुलसी अपने उद्देश्य में सफल हों, जिन्होने पशुव्रत के रूप मे व्यावहारिक जीवन का मार्ग बतलाया है ।
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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