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________________ मानवता के पोषक, प्रचारक व उन्नायक श्री विष्णु प्रभाकर क्सिी व्यक्ति के बारे मे लिखना बहुत कठिन है । कहूँगा, संकट से पूर्ण है। फिर किसी पंथ के प्राचार्य के बारे में। तब तो विवेक-वधि की उपेक्षा करके श्रद्धा के पुष्प अर्पण करना ही सुगम मार्ग है । इसका यह अर्थ नहीं होता कि श्रद्धा सहज होती ही नहीं ; परन्तु जहाँ श्रद्धा सहज हो जाती है, वहाँ प्रायः लेखनी उठाने का अवसर ही नही पाता । श्रद्धा का स्वभाव है कि वह बहुधा बम में जीती है। लेखनी मे अक्सर निर्णायक बुद्धि ही वागत हो माती है और वही संकट का क्षण है । उससे पलायन करके कुछ लेखक तो प्रशसात्मक विशेषणों का प्रयोग करके मुक्ति का मार्ग इंद लेते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो उतने हो विशेपरमो का प्रयोग उसकी विपरीत दिशा में करते हैं। सच तो यह है कि विशेषण के मोह से मुक्त होकर चिन्तन करना संकटापन्न है । वह किसी को प्रिय नही हो सकता। इसीलिए हम प्रशसा प्रपवा निन्दा पों में सोचने के मादी हो गए। फिर यदि लेखक मेरे जैसा हो, तो स्थिति मोर विषम हो जाती है। माचापंथी तुलसी गगी जन श्वेताम्बर तेरापंथ को गुरु परम्परा के नवम पट्टधर प्राचार्य हैं और मैं तेरापथी तो क्या, जैन भी नहीं है। सप पूछा जाए तो वहीं भी नही हूँ। किमी मत, पंथ अथवा दल में पपने को समा नहीं पाता। धर्म ही नहीं, राजनीति मोर साहित्य के क्षेत्र मे भी..." । लेकिन यह सब कहने पर भी मुक्ति क्या मुलभ है ! यह सब भी तो कलम से ही लिखा है। पब माश्वस्त करे या न करे, पराजिस तो कर ही देता है। इसलिए लिना भी अनिवार्य हो उठता है। विप प्रमृत यन रूपता है? भार के दुम में हम गार पर खो है । पातरिश-पग है । परती को गोलाई
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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