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________________ मानासंधी तुर निए ! तारा यह गिरीकीरामन गर है मौर मनोरही ई. संगमा बा गोवामा | सपके जिम विन्द पर मनु'य समाप के प्रास होता है. यही उगी गरीची का प्रस्त हो जाता है। यह बिन्दु मदि पाम पपा पार हजार पर भी सग गया, तो पति भी हो जाता है। हमारे देशी प्रानीन परम्परा में तो दे ही पति गुमो पौर पर माने गए हैं, जिन्होंने कुछ भी गहन रणने में गलोष किया है । ऋषि, महपि साधु-मंन्यासी गरीव नहीं कहना थे और न सभी उन्हें प्रपामा काम ही व्यापता पा ! भगवान् महावीर ने मुण्डा पशिगहो-मुम्ही को पग्ग्रिह बनाया है। परिग्रह सर्वया स्पाग्य है। उन्होने मागे महा : वितण ताण म स पमधन से मनुष्य पण नहीं पा साना । महाभारत के प्रणेता महषि पाम ने उपर प्रियते यावत् तावत् स्वस्वं हि देहिनाम् । प्रधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दामहति ।। उदर-पालन के लिए जो भावश्यक है, वह व्यक्ति का अपना है। इससे अधिक संग्रह कर जो व्यक्ति रखता है, वह चोर है मोर दण्ड का पात्र है। माधुनिक युग में अर्थ-लिप्सा से पचने के लिए महात्मा गावी ने इसीलिए धनपतियों को सलाह दी थी कि वे अपने को उसका ट्रस्टी मानें । इस प्रकार हम देखते है हमारे सभी महज्जनो, पूर्व पुरुषो, सलो और भक्तो ने मधिक अर्थसंग्रह को अनर्थकारी मान उसका निपंध किया है। उनके इस निषेध का यह तात्पर्य कदापि नहीं कि उन्होंने सामाजिक जीवन के लिए प्रर्य को पावश्यकता की दष्टि से ग्रोझल कर दिया हो। मग्रह की जिम भावना से समाज प्रनीति और अनाचार का शिकार होता है, उसे दृष्टि मे रख व्यक्ति की भावनात्मक शुद्धि के लिए उसके दृष्टिकोण की परिशुद्धि ही हमारे महाजनों का अभीष्ट था । वर्तमान युग अर्थ-प्रधान है। प्राज ऐसे लोगो की संख्या अधिक है जो मायिक समस्या को ही देश की प्रधान समस्या मानते हैं। प्राज के भौतिकवादी युग मे प्रारिक समस्या का यह प्राधान्य स्वाभाविक ही है। किन्तु चारित्रिक शुद्धि पौर प्राध्यात्मिकता को जीवन में उतारे बिना व्यक्ति, समाज और देश की उन्नति ___ • परिकल्पना एक मृगमरीचिका ही है । अणु-यायुधों के इस युग में अणुयत एक - , प्रयत्न है । एक प्रोर हिंसा के बीभत्स रूप को अपने गर्भ में छिपाये
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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