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________________ १३८ माचाग्यो सुलती यह भी असत्य नहीं है। कई लोगों को इसमें छल दिखाई देता है तो कईयों को दम्भ । उनका कहना है कि यह सब अपना सम्प्रदाय बढ़ाने के लिए है। लेकिन तुलसीजी छल या माया का प्राश्रय लेकर अपने सम्प्रदाय को पाने . का प्रयत्न कर रहे हों, ऐसा हमे नहीं लगता। क्योकि उनमें हमें इस समझ के दर्शन हुए हैं कि कुछ व्यक्तियो को तेरापथी या जैन सनाने को । अपेक्षा जैन धर्म की विशेषता का व्यापक प्रचार करना हो थेयस्कर है। उनमें इच्छा जरूर है कि अधिक लोग नीतिवान्, चरित्रशील व सदगुपो गर्ने । यार व्यापक क्षेत्र में काम करना हो तो सम्प्रदाय वदि का मोह बाधक ही होता है। यदि माज कोई किसी को अपने सम्प्रदाय में स्वीचने की कोशिश करता है । तो हमें उस पर तरस पाता है। लगता है कि वह कितना बेसमझ है और वस्त्वों के प्रचार की एवज मे परम्परा से चली माई सदियों के पालन में प. प्रचार मानता है। हमे उनमे ऐसी सकुचित दृष्टि के दर्शन नहीं हुए। इसलिए हम मानते हैं कि उनमे छल सम्भव नहीं है। दम्भ या प्रतिष्ठा-मोह के बारे में कभी-कभी पर्वा होता है। उनके प्रधान विचार रखने वाले पहले किये जगा को प्रातमी हो, सो बात करत ।। मन में एक बात हो पौरसरा भाव प्रकट करना दम्भ ही तो है। भारत साल परिश्रम कर पही साधना को हो सो रल को पद पयो में बता ही है। जब साधना के मार्ग में भरकर कोई मरागमन रतनानीछा साधक-बारा मार्ग का प्रतीक-इसी दर्भ : पायेमा, नियम नहीं होता। हमने देखा कि नवर्या करने काप पान वानी मकबहत उत्तवाinा ऐमो सभी का महमा सम्म भोर मका निमनहोनाल मस्ती, फिर भी पाप रही होते, हे अजित होमने नहीलायमापनास प्राप्त सावित्रा हमारी हिम्मत नहीं कि हम मे दिया । रही पानी भोपात, सोहम विपर का प्रय भनिनRI४ विकलोगो कोलकाता भारी या मार.14 में माप नितिन र सामान पाtriti सपको ये नही बनी। यह पता
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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