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________________ प्राचार्यश्री तुल ११६ व्रती हैं। वे पैदल चलते हैं। यहाँ तक कि पैरों में कुछ भी नही पहनते । उन पास केवल सीमित वस्त्र, एकाघ पात्र और पुस्तकें हैं। समाज मे व्याप्त पार्थि विषमता वो देख कर वे कहते हैं- "लोग कहते हैं कि जरूरत की चीजें क हैं। रोटी नहीं मिलती, कपड़ा नहीं मिलता । यह नहीं मिलता, वह नहीं मिलत प्रादि श्रादि । मेरा ख्याल कुछ और है । मैं मानता हूँ कि जरूरत की चीजें क नहीं, जरूरतें बहुत बढ़ गई हैं, संघर्ष यह है । इसमे से प्रधान्ति को बिनारिय निकलती हैं ।" अपनी श्रान्तरिक भावना को व्यक्त करते हुए वे धागे कहते हैं- ए व्यक्ति महल में बैठा मौज करे और एक को खाने तक को न मिले, ऐसी मा विषमता जनता से सहन न हो सकेगी ।" "प्रकृति के गाथ खिलवाड करने वाले इस वैज्ञानिक युग के लिए धर्म को बात है कि वह रोटी की समस्या को नहीं सुलझा सकता ।" पात्र का युग भौतिकता का उपासक बन रहा है। वह जीवन को चरम सिद्धि भौतिक उपलब्धियो में देखता है । परिणाम यह है कि माज उसकी निगाह धन पर टिकी है और परिग्रह के प्रति उसकी घासक्ति निरन्तर बड़तो जा रही है। वह भूल गया कि यदि सुख परिग्रह में होता तो महावीर पोर बुद्ध क्यो राजपाट और दुनिया के वैभव को त्यागते और क्यों गांधी स्वेच्छा ये प्रचिन बनते । सुख भोग में नहीं है, याग में है पोर गौरीशकर को चोटी पर वही पढ़ सकता है, जिसके सिर पर बोझ को भारी गहरी नहीं होती । धाचार्यश्री मानते है कि यदि भाज वा मनुष्य अपरिग्रह की उपयोगिता को जान से मर उस रास्ते पर चल पड़े तो दुनिया के बहुत से सटा दूर हो जाएँगे । मानव के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को शुद्ध बनाने के लिए माचाश्रीनेतान्दोलन का पाठ किया था और वह आन्दोलन सब देवस्या बन गया है। उस नंतिकान्तिका मूल उद्देश्य है कि मनुष्य अपने पापों को देखे और उन्हें दूर करे। इसके गाय-साथ जो भी काम उसके हाथ में हो, उसके करने में नैतिकता का पूरा सेवन को बनाने के लिए प भी कर रहे है, चूंकि अधिक-से-अधिक व्यापक और पर लगन से कार्य किया है और भोजन का अन्तिम लक्ष्न मानव-जाति को गुपी बनाना है,उसके
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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