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________________ ज्ञानार्णवः । आत्माका खभाव है । स्वाधीन सम्पत्ति है । जब अपने खरूपको जाने तब अपने ही निकट है, इस लिये दुर्लभ नहीं है । परन्तु आत्मा जब तक अपने स्वरूपको नहिं जाने, तब तक कर्मके आधीन है। इस अपेक्षासे अपना बोधिखभाव पाना दुर्लभ है और कर्मकृत सब ही पदार्थ संसारमें मुलम हैं । सो आचार्य महाराजने व्यवहारनयकी प्रधानतासे वोधिकी दुर्लभता वर्णन की है अर्थात् उत्तरोत्तर पर्याय दुर्लभतासे पाते पाते वोधिके योग्य उत्तमपर्याय पाना दुर्लभ है । उसमें भी वोधिका पाना दुर्लभ है । इस वोधिको प्राप्त होकर प्रमादादिके वशीभूत होकर नहीं खोदेना चाहिये, ऐसा उपदेश है ॥ १२ ॥ दोहा। चोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं । भवमें प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहिं ॥ १२ ॥ इति वोधिदुर्लभभावना ॥ १२॥ अथोपसंहारः। अब बारह भावनाओंका प्रकरण पूरा करते हैं और भावनाओंका फल तथा महिमा कहते हैं, · दीव्यन्नाभिरयं ज्ञानी भावनाभिर्निरन्तरम् । इहैवानोयनातकं सुखमत्यक्षमक्षयम् ॥१॥ अर्थ-इन बारह भावनाओंसे निरन्तर रमते हुए ज्ञानीजन इसी लोकमें रोगादिककी वाधा रहित अतीन्द्रिय अविनाशी मुखको पाते हैं अर्थात् केवलज्ञानानन्दको पाते हैं ॥ १ ॥ आर्या। विध्यातिकपायाग्निर्विगलितरागो विलीयते ध्वान्तम् । उन्मिपति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् ॥ २॥ अर्थ-इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करनेसे पुरुषोंके हृदयमें कपायरूप अनि बुझ जाती है तथा परद्रव्यों प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूप अंधकारका विलय होकर ज्ञानरूप दीपकका प्रकाश होता है ॥ २ ॥ ____ शार्दूलविक्रीडितम् । एता द्वादशभावनाः खलु सखे सख्योऽपवर्गश्रियस्तस्याः सङ्गमलालसैर्घटयितुं मैत्री प्रयुक्ता वुधैः । :
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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