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________________ ज्ञानार्णवः । तथा वह सुख, दुःख, वा पर्याय नहीं हैं, जो निरन्तर गमनागमन करनेसे प्राप्त न हुई हो । भावार्थ-सर्व ही अवस्थाओं में अनेकवार भोगनी पडती हैं तथा विनाभोगा कुछ भी नहीं है ॥ १३ ॥ न के बन्धुत्वमायाताः न के जातास्तव द्विषः। . दुरन्तागाधसंसारपङ्कमनस्य निर्दयम् ॥ १४ ॥ ___ अर्थ हे प्राणी ! इस दुरन्त अगाध संसाररूपी कर्दम (कीच ) में फंसे हुए तेरे, एसे कौनसे जीव हैं, जो मित्र वा शत्रु नहिं हुए ? अर्थात् सब जीव तेरे शत्रु वा बंधु हो गये हैं ॥ १४ ॥ भूपः कृमिर्भवत्यत्र कृमिश्चामरनायकः। शरीरी परिवर्त्तत कर्मणा वञ्चितो बलात् ॥ १५॥ अर्थ-इस संसारमें यह प्राणी कर्मोंसे वलात् वञ्चित हो राजासे तो मरकर कृमि (लट) हो जाता है और कृमिसे मरकर क्रमसे देवोंका इन्द्र हो जाता है । इस प्रकार परस्पर ऊंची गतिसे नीची गति और नीचीसे ऊंची गति पलटती ही रहती है ॥ १५ ॥ माता पुत्री स्वसा भार्या सैव संपचतेऽङ्गाजा। पिता पुत्रः पुनः सोऽपि लभते पौत्रिकं पदम् ॥ १६ ॥ अर्थ-इस संसारमें प्राणीकी माता तो मरकर पुत्री हो जाती है और वहन मरकर स्त्री हो जाती है, और फिर वही स्त्री मरकर आपकी पुत्री भी हो जाती है । इसी प्रकार पिता मरकर पुत्र हो जाता है तथा फिर वही मरकर पुत्रका पुत्र हो जाता है। इस प्रकार परिवर्तन होता ही रहता है ॥ १६ ॥ अब संसारभावनाका वर्णन पूरा करते हैं और उसे सामान्यतासे कहते हैं, शार्दूलविक्रीडितम् । श्वः शूलकुठारयन्नदहनक्षारक्षुरव्याहते. स्तिर्यक्षु श्रमदुःखपावकशिखासंभारभस्मीकृतैः। . मानुष्येऽप्यतुलप्रयासवशगदेवेषु रागोडतैः संसारेऽत्र दुरन्तदुर्गतिमये वम्भ्रम्यते प्राणिभिः ॥ १७ ॥ अर्थ-इस दुर्निवार दुर्गतिमय संसारमें जीत्र निरन्तर भ्रमण करते हैं। नरकोमें तो ये शूली, कुल्हाडी, घाणी, अग्नि, क्षार, जल, छुरा, कटारी आदिसे पीडाको प्राप्त हुए नाना प्रकारके दुःखांको भोगते हैं और तिर्यंचगतिमें अग्निकी शिखाके भारसे भरारूप खेद और दुःख पाते हैं । तथा मनुप्यगतिमें भी अतुल्यखेदके वशीभूत होकर नाना प्रकारके दुःख भोगते हैं। इसी प्रकार देवगतिमें रागभावसे उद्धत होकर दुःख सहते हैं ।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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