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________________ ज्ञानार्णवः । । ४३७ अर्थ-जिस समय केवल ज्ञानकी प्राप्ति होती है उस समय वे भगवान् सर्वकालमें उदयरूप सर्वज्ञदेव होते हैं और अनन्त सुख, अनन्त वीर्य आदिक विभूतिके प्रथम स्थान होते हैं. यह भावमुक्तिका खरूप है ॥ ३२ ॥ इन्द्रचन्द्रार्कभोगीन्द्रनरामरनतक्रमः । विहरत्यवनीपृष्ठं स शीलैश्वर्यलाञ्छितः ॥ ३३ ॥ अर्थ-इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, धरणेन्द्र, मनुष्य और देवोंसे नमस्कृत हुए हैं चरण जिनके ऐसे केवली भगवान् शील अर्थात् चौरासी लाख उत्तरगुण और ऐश्वर्य सहित पृथ्वीतलमें विहार करते हैं ॥ ३३ ॥ उन्मूलयति मिथ्यात्वं द्रव्यभावमलं विभुः । वोधयत्यपि नि:शेष भव्यराजीवमण्डलम् ॥ ३४॥ अर्थ-वे विभु सर्वज्ञ भगवान् पृथ्वीतलमें विहार करके जीवोंके द्रव्यमल और भांवमल रूप मिथ्यात्वकों जड़से नाश करते हैं और समस्त भव्यजीवरूपी कमलोंकी मंडली (समूह)को प्रफुल्लित करते हैं। भावार्थ-जीवोंके मिथ्यात्वको दूर करके उनको मोक्षमार्गमें लगाते हैं ।। ३४ ॥ ज्ञानलक्ष्मी तपोलक्ष्मी लक्ष्मी त्रिदशयोजिताम् । आत्यन्तिकी च सम्प्राप्य धर्मचक्राधिपो भवेत् ॥ ३५ ॥ अर्थ-इस शुक्ल ध्यानके प्रभावसे ज्ञानलक्ष्मी, तपोलक्ष्मी और देवोंकी की हुई समवसरण आदिक लक्ष्मी तथा मोक्षलक्ष्मीको पाकर, धर्मके चक्रवर्ती होते हैं ॥ ३५ ॥ कल्याणविभवं श्रीमान् सर्वाभ्युदयसूचकम् ।। समासाद्य जगद्वन्द्यं त्रैलोक्याधिपतिर्भवेत् ॥ ३६ ।। अर्थ-अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मीकरके सहित केवली भगवान् जगतसे वंदनीय और सब अभ्युदयोंका सूचक ऐसे कल्याणरूप विभव (संपदा)को पाकर, तीनों लोकोंके अधिपति होते हैं ॥ ३६॥ तन्नामग्रहणादेव निशेषा जन्मजा रुजः। अप्यनादिसमुद्भता भव्यानां यान्ति लाघवम् ॥ ३७॥ । अर्थ-जिन भगवान्के नाम लेनेसे ही भव्य जीवोंके अनादि कालसे उत्पन्न हुए जन्ममरणजन्य समस्त रोग लघु (हलके) हो जाते हैं ॥ ३७॥ तदाहत्वं परिमाप्य स देवः सर्वगः शिवः। जायतेऽखिलकाँधजरामरणवर्जितः ॥ ३८॥ अर्थ-तव वे सर्वगत और शिव ऐसे भगवान् अरहंतपनेको पाकर, संपूर्ण कौके
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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