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________________ ज्ञानार्णवः । तद्गुणग्रामसंलीनमानसस्तद्दताशयः। तद्भावभावितो योगी तन्मयत्वं प्रपद्यते ॥४१॥ अर्थ-उस परमात्मामें मन लगावै तब उसके ही गुणोंमें लीन चित्त होकर, उसमें ही चित्तको प्रवेश करके उसी भावसे भावित योगी मुनि उसीकी तन्मयताको प्राप्त होता है ॥ ४१ ॥ यदाभ्यासवशात्तस्य तन्मयत्वं प्रजायते। तदात्मानमसौ ज्ञानी सर्वज्ञीभूतमीक्षते ॥ ४२ ॥ अर्थ-जब अभ्यासके वशसे उस मुनिके उस सर्वज्ञके स्वरूपसे तन्मयता उत्पन्न होती है उस समय वह मुनि अपने असर्वज्ञ आत्माको सर्वज्ञ खरूप देखता है ॥ ४२ ॥ तब किस प्रकार मानता है सो कहते हैं, एष देवः स सर्वज्ञः सोऽहं तद्रूपतां गतः। तस्मात्स एव नान्योऽहं विश्वदशीति मन्यते ॥ ४३ ॥ अर्थ-जिस समय सर्वज्ञ खरूप अपनेको देखता है, उस समय ऐसा मानता है कि, यह वही सर्वज्ञ देव है, वही तत्खरूपताको प्राप्त हुआ मैं हूं, इस कारण वही सर्वका देखनेवाला मैं हूं, अन्य मैं नहीं हूं ऐसा मानता है ॥ १३ ॥ "येन येन हि भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयता याति विश्वरूपो मणियथा ॥१॥ अर्थ-जिस जिस भावसे यह यंत्रवाहक (जीव) जुड़ता है उस २ भावसे तन्मयताको प्राप्त होता है जैसे निर्मल स्फटिक मणि जिस वर्णसे युक्त होता है वैसा ही वर्ण खरूप हो जाता है ॥ १॥" • इस प्रकार अन्य शास्त्रमें कहा है, तथा अन्य प्रकार भी कहते हैं, भव्यतैव हि भूतानां साक्षान्मुक्तेर्निवन्धनम् । अतः सर्वज्ञता भव्ये भवन्ती नात्र शङ्कयते ॥ ४४ ।। अर्थ-अथवा इस प्रकार है कि जीवोंके भव्यत्व भाव है सो साक्षात् मुक्तिका कारण है इस कारण भव्य प्राणीमें सर्वज्ञता होनेमें संदेह नहीं करना अर्थात् भव्यके निःसंदेह सर्वज्ञता होती ही है ॥ ४४ ॥ अयमात्मा स्वसामर्थ्यादिशुद्ध्यति न केवलम् । चालयत्यपि संक्रुद्धो भुवनानि चतुर्दश ॥ ४५॥ अर्थ-यह आत्मा अपने सामर्थ्यसे केवल विशुद्ध ही नहिं होता है किन्तु जो क्रोध
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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