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________________ ज्ञानार्णवः । अर्थ-हे प्राणी ! यदि यह शरीर अपूर्व हो, अर्थात् पूर्वमें कभी तूने नहीं पाया हो, अथवा अत्यन्त अविनश्वर हो, तव तो इसके अर्थ निंद्यकार्य करना योग्य भी है। परन्तु ऐसा नहीं है । क्योंकि यह शरीर तूने अनन्तवार धारण किया है और छोडा भी है, तो फिर ऐसे शरीरके अर्थ निन्धकार्य करना कदापि उचित नहीं है । इस कारण ऐसे कार्य कर जिससे कि, तेरा वास्तवमें कल्याण हो ॥ १६ ॥ आगे फिर भी इसी अर्थको सूचित करते हुए कहते हैं,__ अवश्यं यान्ति यास्यन्ति पुत्रस्त्रीधनवान्धवाः। शरीराणि तदैतेपां कृते किं खिद्यते वृथा ॥ १७॥ अर्थ-पुत्र स्त्री वांधव धन शरीरादि चले जाते हैं और जो हैं, वह भी अवश्य ही चले जायेंगे। फिर इनके कार्यसाधनकेलिये यह जीव वृथा ही क्यों खेद करता है ॥१७॥ नायाता नैव यास्यन्ति केनापि सह योपितः। . तथाप्यज्ञाः कृते तासां प्रविशन्ति रसातलम् ॥ १८ ॥ अर्थ-इस संसारमें स्त्रियां न तो किसीके साथ आई और न किसीके साथ जायेंगी, तथापि मूढजन इनकेलिये निन्धकार्य करके नरकादिकमें प्रवेश करते हैं । यह वड़ा अज्ञान है ।। १८ ॥ • आगे वन्धुजन कैसे हैं, सो कहते हैं, ये जाता रिपकः पूर्व जन्मन्यस्मिन्विधैर्वशात् । त एव तव वर्तन्ते वान्धवा वद्धसौहृदः ॥ १९॥ अर्थ-हे आत्मन् ! जो पूर्व जन्ममें तेरे शत्रु थे, वे ही इस जन्ममें तेरे अतिनेही होकर बंधु हो गये हैं-अर्थात् तू इनको हितू वा मित्र समझता है, अर्थात् ये तेरे हितू मित्र नहीं हैं, किन्तु पूर्वजन्मके शत्रु हैं ॥ १९॥ रिपुत्वेन समापन्नाः प्राक्तनास्तेऽत्रजन्मनि । बान्धवाः क्रोधरुद्धाक्षा दृश्यन्ते हन्तुमुद्यताः ॥ २० ॥ अर्थ-और जो पूर्व जन्ममें तेरे बांधव थे, वे ही इस जन्ममें शत्रुताको प्राप्त होकर तथा क्रोधयुक्त लालनेत्र करके तुझे मारनेकेलिये उद्यत हुए हैं । यह प्रत्यक्षमें देखा जाता है ॥ २० ॥ आगे इस प्राणीको अन्धवत् वताते हैं, अङ्गनादिमहापाशैरतिगाढं नियन्त्रिताः। पतन्त्यन्धमहाकूपे भवाख्ये भविनोऽध्वगाः॥ २१ ॥ अर्थ-इस संसारमें निरन्तर फिरनेवाले प्राणिरूपी पथिक स्त्री आदिके बडे २
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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