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________________ ४०२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ – हे मुने, तू सकल सिद्धविद्याका भी चिंतवन कर. क्योंकि, वह विद्या प्रधानस्वरूप है, प्रसन्न है, गंभीर है तथा चंद्रमाके विंबसे निकली हुई के समान जो झरती हुई सुधा है उससे आद्रित है. ऐसी वह महाविद्या 'स्वीं' ऐसा अक्षर है ॥ ८१ ॥ अविचलमनसा ध्यायंल्ललाटदेशे स्थितामिमां देवीम् । प्राप्नोति मुनिरजस्रं समस्तकल्याणनिकुरम्बम् ॥ ८२ ॥ अर्थ - इस विद्या देवीको ललाट देशपर स्मित करके, निश्चल मनसे निरन्तर ध्यान करता हुआ मुनि समस्त कल्याणके प्राप्त होता है ॥ ८२ ॥ मालिनी अमृतजलविगर्भान्निःसरन्तीं सुदीप्ताaforofluori चन्द्रलेखां स्मरत्वम् । अमृतकणविकीर्णी लावयन्तीं सुषाभिः परमपदधरित्र्यां धारयन्तीं प्रभावम् ॥ ८३ ॥ अर्थ – हे मुने, तू इस अमृतके समुद्र से निकलती हुई, भलेप्रकार देदीप्यमान, ललाटदेशमें स्थित, अमृतके कणोंसे विखरी हुई और अमृतसे आद्रित करती हुई चंद्रलेखाको स्मरण कर. क्योंकि, यह विद्या मोक्षरूपी पृथिवीमें अपने प्रभावको धारण करनेवाली है ॥ ८३ ॥ एतां विचिन्तयन्नेव स्तिमितेनान्तरात्मना । जन्मज्वरक्षयं कृत्वा याति योगी शिवास्पदम् ॥ ८४ ॥ अर्थ - इस विद्याको पूर्वोक्त प्रकारसे अपने निश्चल मनसे ध्यान करता हुआ ध्यानी योगी संसाररूप ज्वरका क्षय करके, मोक्ष स्थानको प्राप्त होता है ॥ ८४ ॥ यदि साक्षात्समुद्विग्नो जन्मदावोग्रक्रमात् । तदा स्मरादिमन्त्रस्य प्राचीनं वर्णसप्तकम् ॥ ८५ ॥ अर्थ - हे मुने, जो तू संसाररूप अनिके तीव्र संक्रम ( संयोग ) से उद्वेगरूप हुआ है अर्थात् दुःखी हुआ है तो आदिमंत्र जो पंच नमस्कार मन्त्र है उसके पहिले सात अक्षरोंका ध्यान कर, वे सात अक्षर 'णमो अरहंताणं' ये हैं ॥ ८५ ॥ यदत्र प्रणवं शून्यमनाहृतमिति त्रयम् । एतदेवं विदुः प्राज्ञास्त्रैलोक्यतिलकोत्तमम् ॥ ८६ ॥ अर्थ—जो इस प्रकरणमें प्रणव और शून्य तथा अनाहत ये तीन अक्षर हैं इन तीनों अक्षरोंको ही बुद्धिमानोंने तीनलोक के तिलक समान कहा है ॥ ८६ ॥ नासाग्रदेशसंलीनं कुर्वन्नत्यन्तनिर्मलम् । ध्याता ज्ञानमवाप्नोति प्राप्य पूर्व गुणाष्टकम् ॥ ८७ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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