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________________ ज्ञानार्णवः। ३३५ तीय प्रदीप है तथा अतिशय आनन्दकी सीमाको उपाधिरहित प्राप्त हुआ है-तथा परम मुनिकी बुद्धिसे प्रकट उत्कृष्टतापर्यन्त है खरूप जिसका ऐसा है-इस प्रकार आत्माका अनुभव करै. ऐसा उपदेश है ॥ १०३ ॥ इति साधारणं ध्येयं ध्यानयोधर्मशुक्लयोः। . विशुद्धिः स्वामिभेदेन भेदः सूत्रे निरूपितः ॥ १०४.॥ अर्थ-इस (उक्त) प्रकार धर्मध्यान व शुक्लध्यानका ध्येय ( ध्यान करने योग्य) पदार्थ साधारणतया कहा गया और इन दोनों की विशुद्धता और ध्यान करनेवाले (ध्याता आदि)का भेद सूत्रमें निरूपण किया है ॥ १०४ ॥ इस प्रकार धर्म शुक्ल ध्यानके वर्णनमें आत्माको जाननेके लिये बहिरात्मा, अंतरात्मा तथा परमात्माका खरूप कहकर, तत्पश्चात् वहिरात्माको छोड़, अन्तरात्मा होकर, परमास्माका ध्यान करना वर्णन किया गया । इस अध्यायका संक्षेप यह है कि, जो देह, इन्द्रिय, धन, संपदादिक वाद्य वस्तुओंमें आत्मबुद्धि करै वह तो पहिरात्मा ( मिथ्या दृष्टि) है । और जो अन्तरंग विशुद्धदर्शनज्ञानमयी चेतनामें आत्मबुद्धि करता है और चेतनाके विकार रागादिक भावोंको कर्मजनित हेय जानता है वह अन्तरात्मा है और वही सम्यग्दृष्टि है। और जो समस्त कर्मोंसे रहित केवल ज्ञानादिक गुणसहित हो सो परमात्मा है । उस परमात्माका ध्यान अन्तरात्मा होकर, करै । उसमें जो निश्चयनय (शुद्ध द्रव्यार्थिक नय ) से अपने आत्माको ही अनन्तनानादि गुणोंकी शक्तिसहित जानकर, नयके द्वारा युगपत् शैक्ति व्यक्तिरूप परोक्षको अपने अनुभवमें साक्षात् आरोपण करके तप अपने रूपको ध्यावै और जब वह उसमें लय हो जाय तव समस्त कर्मोंका नाश कर, वैसा ही व्यक्तरूप परमात्मा खयं (आप) हो जाता है । __ यह ध्यान अप्रमत्त सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिके परिपूर्ण होता है। उसमें धर्मध्यानकी उत्कृष्टता है । ध्यानसे सातिशय अप्रमत्तगुणस्थान श्रेणीको चढ़ता है । उसीसे शुक्लध्यानको प्राप्त होकर, कर्मका नाश कर, केवल ज्ञान उत्पन्न करता है । इस प्रकार धर्मध्यान व शुक्लध्यानका एक ही ध्येय कहा गया है, किन्तु दोनोंमें विशुद्धताका भेद अवश्य है, अर्थात् धर्मध्यानकी विशुद्धतासे शुक्लध्यानकी विशुद्धता अधिक है । और खामीका भेद गुणस्थानोंके भेदसे जानना ॥ छप्पय । जड चेतन मिलि हैं, अनादिके एकरूप जिमि । मृढभेद नहिं लखै, प्रकृति मिथ्यात्व उदै इमि ॥ जिन आगमतें चिह्न, भेद जाने लहि अवसरः। अनुभव करि चिद्रूप, आप अरु अन्य सकल पर॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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