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________________ ज्ञानार्णवः। . ३२९ चलमप्यचलप्रख्यं जगद्यस्यावभासते । ज्ञानयोगक्रियाहीनं स एवास्कन्दति ध्रुवम् ॥ ७३ ॥ अर्थ-जिस योगी मुनिको चलखरूप भी यह जगत् अचलकी समान दीखता है, वही मुनि इन्द्रियज्ञानकी और योगकी क्रियासे हीन ऐसे शिवको (निर्वाणको) प्राप्त होता है. भावार्थ-जब अपने परिणाम स्थिरीभूत होते हैं तव समस्त पदार्थ ज्ञानमें निश्चल प्रतिक्विखरूप ही भासते हैं और तब ही मुक्त होता है ।। ७३ ॥ तनुत्रयावृतो देही ज्योतिर्मयवपुः स्वयम् । न वेत्ति यावदात्मानं क तावद्वन्धविच्युतिः ॥ ७४ ॥ अर्थ-यह आत्मा स्वयं तौ ज्ञानज्योति प्रकाशमय है और देहसहित देही . औदारिक तैजस और कार्माण इन तीन शरीरोंसे ढका हुआ है. सो यह आत्मा जबतक अपने ज्ञानमय आत्माको नहीं जानता तबतक बंधका अभाव कहांसे हो अर्थात् न होता है ।। ७४ ॥ गलन्मिलदणुवातसंनिवेशात्मकं वपुः। वेत्ति मूढस्तदात्मानमनाद्युत्पन्नविभ्रमात् ॥ ७५॥ अर्थ-क्षरते मिलते पुद्गल परमाणुओंके स्कन्धोंके निवेशसे रचा हुआ जो यह शरीर है, उसको यह मूढ बहिरात्मा अनादिसे उत्पन्न हुए विभ्रमसे आत्मा जानता है. यही संसारका बीज है ॥ ७५ ॥ मुक्तिरेव मुनेस्तस्य यस्यात्मन्यचलास्थितिः। न तस्यास्ति ध्रुवं मुक्तिने यस्यात्मन्यवस्थितिः ॥ ७६ ॥ अर्थ-जिस मुनिकी आत्माम अचलस्थिति है उसीको मुक्ति होती है. और जिसकी आत्मामें अवस्थिति नहीं है उसको नियमसे मुक्ति नहीं होती क्योंकि आत्मामें जो अवस्थिति है वही सम्यग्दर्शन ज्ञानपूर्वक चारित्र है और उसीसे मुक्ति है. सांख्य नैयायिकादि मतावलंबी ज्ञानमात्रसे मुक्ति मानते हैं, सो नहीं है ॥ ७६ ॥ दृढः स्थूलः स्थिरो दीर्घो जीर्णः शी) लघुर्गुरुः । वपुपैवमसंबंधन्वं विन्द्यावेदनात्मकम् ॥ ७७॥ अर्थ-शरीरसहित मैं दृढ हूं, स्थूल (मोटा) हूं, स्थिर हूं, लंबा हूं, जीर्ण हूं, शीर्ण (अति कृश) हूं, हलका हूं और भारी हूं इस प्रकार आत्माको शरीरसहित संबंधरूप नहीं करता हुआ पुरुप ही आत्माको ज्ञानखरूप जानता है अर्थात् अनुभव करता है ॥ ७७ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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