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________________ २९७ ज्ञानार्णवः । आगे विंदुदेखनेका विधान कहते हैं, कर्णाक्षिनासिकापुटमङ्गुष्टप्रथममध्यमाङ्गुलिभिः । द्वाभ्यां च पिधाय मुखं करणेन हि दृश्यते विन्दुः ॥ ६८ ॥ अर्थ-कान नेत्र नासिका इनको क्रमसे दोनों अँगूठे दोनों प्रथम अंगुली तथा दोनों मध्यमा अगुलियोंसे बंद करके ढक करके मुखको भी शेष दोनों अंगुलियोंसे बंद करले तत्पश्चात् मनसे देखनेपर चारों प्रकारकी पवनोंके विंदुओं से जिस प्रकारका बिंदु दीखै वहीपवन जानना ॥ ६८॥ लोकः । दक्षिणामथवा वामां यो निपेद्धं समीप्सति । तदनं पीडयेदन्यां नासानाडी समाश्रयेत् ।। ६९॥ अर्थ-दहनी अथवा वाई नाडीका निषेध करना ( बदलना ) चाहे तो उस नाडीके अंगको पीडै तथा दावै तो दूसरी नाडीका आश्रय कर अर्थात् दहनीसे बाई हो जाय और वाईसे दहनी होजाय ॥ ६९ ॥ भायी। अग्रे वामविभागे चन्द्रक्षेत्रं वदन्ति तत्त्वविदः । पृष्ठे च दक्षिणाङ्गे रवेस्तदेवाहुराचार्याः ॥ ७० ॥ अर्थ-अग्र कहिये सन्मुख और वाई तरफका भाग तौ चन्द्रमाका क्षेत्र है और पिछला और दहिना भाग सूर्यका क्षेत्र है इस प्रकार तत्त्वके नाननेवाले आचार्यगण कहते हैं ॥ ७० ॥ अवनिवनदहनमंडलविचलनशीलस्य तावदनिलस्य । गति ऋजुरेव ममत्पुरविहारिणः सा तिरश्चीना ॥ ७१॥ अर्थ-पृथ्वीजल अमिमंडलमें बिहार करनेवाली पवनकी गति तो सरल है और पवनमंढलमें विहार करनेवाली गति तिरछी ( वक्र ) है || ७१ ॥ पवनप्रवेशकाले जीव इति प्रोच्यते महामतिभिः । निप्क्रमणे निर्जीवः फलमपि च तयोस्तथा ज्ञेयम् ॥ ७२ ॥ अर्थ-किसी छिपी वतुके विषयमें प्रश्न करै तो पवनके प्रवेशकालमें तो जीव है ऐसा कहना चाहिये और पवनके निकलते हुए कालमें प्रश्न करै तो निर्जीव है ऐसा बड़े बुद्धिमान् पुरुषोंने कहा है तथा इनका फल भी वैसा ही कहा जाता है ॥ ७२ ॥ १ तथा भूतं इत्यपि पाठः। ३८
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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