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________________ २७१ ज्ञानार्णवः । कटुकतरफलाढ्यं सम्यगालोच्य धीर त्यज सपदि यदि त्वं मोक्षमार्गे प्रवृत्तः॥४४॥ अर्थ-आचार्य उपदेश करते हैं कि हे धीर पुरुष ! जो तू मोक्षमार्गमें प्रवर्ती है तो उपर्युक्त प्रकार अनेकरूप निन्दनीय दुर्ध्यानका युग्मरूप कलंक जिनका दूर होगया ऐसे महापुरुषोंने वर्णन किया है उसको भले प्रकार विचार करके शीघ्र ही छोड़ क्योंकि यह दुर्ध्यानका युग्म है सो पापरूपी घनका बीज है जितने पाप हैं वे इनसे ही उपजे हैं अतिशय कठिन फलसंयुक्त हैं. तीव्र दुःख ही इसका फल है ।। १४ ॥ इस प्रकार आतरौद्र दोनों ध्यानका वर्णन किया यहां तात्पर्य यह है कि इन दोनों अप्रशस्त ध्यानोंको त्यागनेसे प्रशस्त ध्यान धर्म ध्यान शुक्ल ध्यानकी प्रवृत्ति होती है । दोहा । पंच पापमें हर्प जो, रौद्रध्यान अघखानि । आत कह्यो दुखमगनता, दोऊ तज निजजानि ॥ २६ ।। इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे आर्तरौद्र ध्यानंनाम पड्दिशं प्रकरणं ॥ २६ ॥ अथ सप्तविंशं प्रकरणम् । आगे धर्मध्यानका स्वरूप कहते हैं, अथ प्रशममालम्य विधाय खवशं मनः । विरज्य कामभोगेपु धर्मध्यानं निरूपय ॥१॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तू प्रशमताका (मन्द कपायरूप विशुद्ध भावोंका ) अवलंबन करके अपने मनको अपने वश कर और कामभोगोंकी इच्छामें अर्थात् विषयसेवनादिकमें विरक्त होकर धर्मध्यानको विचारपूर्वक देख ॥ १ ॥ तदेव प्रक्रमायातं सविकल्पं समासतः। आरम्भफलपर्यन्तं प्रोच्यमानं विवुध्यताम् ॥ २ ॥ अर्थ-वही धर्मध्यान आचार्योकी परिपाटीसे (गुरु-आम्नायसे ) चला आया भेदोंसहित संक्षेपसे कहा हुआ आरंभ फलपर्यन्त जानना चाहिये ॥२॥ ज्ञानवैराग्यसंपन्नः संवृतात्मा स्थिराशयः । मुमुक्षुरुद्यमी शान्तो धाता धीरा प्रशस्यते ॥३॥ अर्थ-इस धर्मध्यानका करनेवाला ध्याता यथार्थ वस्तुका ज्ञान और संसारसे वैराग्य
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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