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________________ ज्ञानार्णवः 1 २५७ दुःख देनेवाले हैं और दूसरे धर्म शुक्ल नामके दो प्रशस्त ध्यान हैं सो कर्मोका निर्मूल करनेमें समर्थ हैं ॥ २१ ॥ प्रत्येकं च चतुर्भेदैश्चतुष्टयमिदं मतम् । अनेकवस्तुसाधर्म्यवैधर्म्यालम्बनं यतः ॥ २२ ॥ अर्थ – इन आर्त रौद्र धर्म्य शुक्ल ध्यानोंका चतुष्टय है. सो प्रत्येक ध्यान भिन्न २ चार चार भेदोंवाला माना गया है; क्योंकि, यह चतुष्टय अनेक वस्तुओंके साधर्म्य वैधर्म्यके अवलम्बन करनेवाला है अर्थात् परस्पर विलक्षण है ॥ २२ ॥ - इनमें से प्रथम ही आर्तध्यानका स्वरूप और भेद कहते हैं, ऋते भवमथार्त स्यादसद्ध्यानं शरीरिणाम् । दिग्मोहान्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ॥ २३ ॥ अर्थ — ऋत कहिये पीड़ा दुःखमें उपजै सो आर्तध्यान है, सो यह ध्यान अप्रशस्त है. जैसे किसी प्राणी दिशावोंके भूल जानेसे उन्मत्तता होती है उसके समान है और यह ध्यान अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञानकी वासना के वशसे उत्पन्न होता है ॥ २३ ॥ अब इसके ४ भेद कहते हैं, - अनिष्टयोगजन्माद्यं तथेष्टार्थात्ययात्परम् । प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानात्तूर्यमङ्गिनाम् ॥ २४ ॥ अर्थ - पहिला आर्तध्यान तो जीवोंके अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे होता है, दूसरा आर्तध्यान इष्ट पदार्थ के वियोग से होता है, तीसरा आर्तध्यान रोगके प्रकोपकी पीडासे होता है और चौथा आर्तध्यान निदान कहिये आगामी कालमें भोगोंकी वांछाके होनेसे होता है, इस प्रकार ४ भेद आर्तध्यानके हैं ॥ २४ ॥ अव अनिष्ट संयोग नामा आर्तध्यानका स्वरूप कहते हैं, - मालिनी । ज्वलनवनविषाखन्याल शार्दूलदैत्यैः स्थलजलबिलसत्त्वैर्दुर्जनारातिभूपैः । स्वजनधनशरीरध्वंसिभिस्तैरनिष्टै भवति यदिह योगादाद्यमार्तं तदेतत् ॥ २५ ॥ अर्थ - इस जगत में आपना स्वजन धन शरीर इनके नाश करनेवाले अग्नि जल विष शस्त्र सर्प सिंह दैत्य तथा स्थलके जीव जलके जीव बिलोंके जीव तथा दुष्टजन वैरी राजा इत्यादि अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे जो हो सो पहिला आर्तध्यान है || २५ || ૩૩
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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