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________________ २२९ ज्ञानार्णवः। मकी कल्पना करके अन्यमती जो ध्यान करते हैं, सो यह आत्मा ही कामकी उक्ति कहिये नाम वा संज्ञाको धारण करनेवाला है ॥ १६ ॥ अब उक्त प्रकारकी तीन तत्त्वरूपी समस्त चेष्टायें इस आत्माहीकी हैं ऐसा कहते हैं तदेवं यदिह जगति शरीरविशेषसमवेतं किमपि सामर्थ्यमुपलभा. महे तत्सकलमात्मन एवेति विनिश्चयः । आत्मप्रवृत्तिपरंपरोत्पादितत्वादिग्रहग्रहणस्येति ।। १७ ॥. ___ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि इस कारणसे पूर्वोक्त प्रकार शिवतत्त्वगरुडतत्त्व-कामतत्त्वमें इस जगतमें शरीरविशेषसे मिली हुई जो कुछ सामर्थ्य हम देखते हैं सो सब आत्माहीकी है। यह हमको भले प्रकार निश्चय है । क्योंकि, शरीरके ग्रहण करनेमें आत्माकी प्रवृत्तिकी परंपरा(परिपाटी) को उत्पत्तिहेतुता है। भावार्थ-यह आत्मा जैसी शुभ तथा अशुभ तथा अशुद्ध ध्यानादिरूप प्रवृत्ति करता है वैसेही विचिवरूप शरीर धारण करता है । और वैसीही अपने सामर्थ्यरूप अनेक चेप्टायें करना उसका फल होता है ॥ १७ ॥ . आगे आत्माका वर्णन पद्यसे करते हैं। मालिनी। यदिह जगति किञ्चिविस्मयोत्पत्तिवीज भुजगमनुजदेवेष्वस्ति सामर्थ्यमुच्चैः । तखिलमपि मत्वा नूनमात्मैकनिष्टं। भजत नियतचित्ताः शश्वदात्मानमेव ॥ १८॥ अर्थ हे भव्य जीवो! इस जगतमें जो कुछ अधोलोकमें भवनवासी देवांकी, मध्यलोकमें मनुष्योंकी और ऊर्ध्वलोकमें देवोंकी सामर्थ्य विसय उत्पन्न करनेका कारण है सो सवही सामर्थ्य निश्चय करके इस एक आत्माहीमें है। इस कारण हम उपदेश करते हैं कि निश्चलचित्त होकर, तुम एक आत्माहीको निरन्तर भजो । भावार्थआत्मा अनन्त शक्तिका धारक है, सो इसको जिस प्रकार वा जिस रीतिसे प्रगट किया जावे उसी प्रकारसे यह आत्मा व्यक्तरूप (प्रगट) होता है ।। १८ ॥ अचिन्त्यमस्य सामर्थ्य प्रवक्तुं कः प्रभुर्भवेत् । तच नानाविधध्यानपदवीमधितिष्ठति ॥ १९ ॥ अर्थ-इस आत्माकी शक्ति अचिन्त्य है । उसको प्रगट करनेको कोई समर्थ नहीं है । यह शक्ति ( सामर्थ्य) नानाप्रकारके ध्यानकी पदवीके आश्रयसे होती है। अर्थात् नानाप्रकारके ध्यानसे ही आत्माकी अचिन्त्य शक्तियें प्रगट होती हैं ।। १९ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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