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________________ ज्ञानार्णवः । भेदभिन्नसमस्तसत्त्वपरस्परमनः संघटनसूत्रधारः। विविधवनराजिमञ्जरीपरिमलपरिमिलितमधुकरकुल विकसितकुसुमस्तचकतरलितकटाक्षप्रकसौभाग्येन सहकारलताकिशलयकरोन्मुक्तमखरीप रागपिष्टातकपिशुनितप्रवेशोत्सवेन मदमुखर मधुकर कुटुम्बिनीकोमलालापसंवलितमांसलितकोकिलाकुलकणत्कारसंगीतकप्रियेण मलयगिरिमेखलावनकृतनिलयचन्दनलतालास्योपदेशकुशलैः सुरतभर खिन्नपन्नगनितम्बिनीजनवदनकवलितशिखैरपि विरहिणीनिश्वासमांसलीकृतकायैः केरलीकरलान्दोलनदक्षैरुत्कम्पितकुन्तलकामिनीकुन्तलैः परिगतसुरतखेदोन्मिषितलाटीललाटस्वेदाम्बुकणिकापान दोहदवद्भिरासादिताने कनिर्झर शिशिरशीकरैर्वकुलामोदसन्दर्भनिर्भर परिलुण्ठितपाटलासौरभैः परिमिलितनवमालिकामोदैर्मन्दसंचरणशीलैरा कुली कृत सकलभुवनजनमनोभिर्मलयमारुतैः समुल्लसितसौभाग्येन वसन्तसुहृदा दूरमारोपित - तापः । प्रारब्धोत्तमतपस्तपनश्रान्तमुनिजनप्रार्थित प्रवेशोत्सवेन खर्गापवर्गद्वारसंविघटनवज्रार्गलः। सकलजगद्दिजयवैजयन्तीकृतचतुरकामिनीविभ्रमः । क्षोभणादिमुद्रा विशेपशाली सकलजगदशीकरणसमर्थः इति चिन्त्यते तदायमात्मैव कामोक्तिविषयतामनुभवतीति कामतत्त्वम् ॥१६॥ अर्थ — पुनः यदि कामतत्त्व चित्तमें ध्याया नाय वा विचाराजाय तो ऐसा है— 'असौ' कहिये स्वसंवेदनगोचर सकलजगतको चमत्कार करनेवाले धनुपके स्थान निवेशित किया और खींचकर कुंडलाकार कियाहुआ रससहित इक्षुकांडके समान खरसहित उन्मादन, मोहन, संतापन, शोषण, मारण इन पांचवाणोंकी विधिसे ( आरोपणसे ) लक्ष्यरूप (निसानेरूप) किया है दुर्लभ परोक्ष मोक्षलक्ष्मी के समागम होनेके लिये उत्कंठित अतिकठोर मुनियोंका मन जिसने ऐसा काम है। तथा - स्फुरायमान मकराकार चित्रित ध्वजा है जिसकी, और कमनीय सुंदर समस्त स्त्रियोंके समूहद्वारा वंदनीय है सुंदरता जिसकी ऐसी रतिनामा कामकी स्त्रीसहित जो केलि (क्रीड़ा ) उसके कलापमं (समूहमें) दुर्ललित है (अनिवार्य है) चित्त जिसका ऐसा है । तथा — चतुरोंकी चेष्टा रूप भ्रूभंगमात्रसे वशीभूत किया स्त्रियोंका समूहही है साधन सेना जिसके ऐसा है । पुनः दुरधिगम, अगाव (गहन) है मध्यभाग जिसका ऐसे विस्तृत रागरूप समुद्रमें डुलाये हैं सुर (कल्पवासी देव), असुर (भुवनवासी व्यन्तर ज्योतिपी देव), नर ( राजादि लोक ), भुजग धरणीन्द्र ( शेषनागादिक ), यक्ष (धनदादिक ), सिद्ध (जिनके अंजनगुटिका रसायनादि विद्या सिद्ध हो ), लोकको रंजायमान करनेवाले गन्धर्व ( गानके अधिकारी देवादिक), विद्याधर ( आकाशमें विमानोंद्वारा चलनेवाले) हरिहरब्रह्मादिक के समूह जिसने ऐसा, तथा त्रीपुरुष के भेद २२७
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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