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________________ २१७ मालिनी। ज्ञानार्णवः। अर्थ हे आत्मन् ! ये इन्द्रियोंके विषय तुझकोही ठगनेके लिये प्रवृत्त हुए हैं ऐसा मै मानता हूं इसकारण चित्तको ऐसा स्थिर कर कि जिसप्रकार उन विषयोंसे कल. कित न हो ॥ २७॥ उदधिरुदकपूरैरिन्धनैश्चित्रभानु यदि कथमपि देवात्तृप्तिमासाद्येताम् । न पुनरिह शरीरी कामभोगैर्विसंख्यै श्चिरतरमपि भुक्तैस्तृप्तिमायाति कैश्चित् ॥ २८॥ : अर्थ-इस जगतमें समुद्र तो जलके प्रवाहांसे (नदियोंके मिलनेसे ) तृप्त नहीं होता और अग्नि इन्वनोंसे तृप्त नहीं होती सो कदाचित् दैवयोगसे किसी प्रकार ये दोनों तृप्त हो मी जायँ परन्तु यह जीव चिरकालपर्यन्त नानाप्रकारके काम भोगादिके भोगनेपर भी कभी तृप्त नहीं होता ॥ २८ ॥ आर्या । यद्यपि दुर्गतिवीजं तृष्णासन्तापपापसंकलितम् । तदपि न सुखसंप्राप्यं विषयसुखं वाञ्छितं नृणाम् ॥ २९ ॥ अर्थ-यद्यपि विषयजनित मुख दुर्गतिका वीजभूत कारण है और तृप्णा-सन्तापादिसहित है तथापि यह सुख विना कष्टके इच्छानुसार मनुप्योंको प्राप्त होना कठिन है।॥२९॥ अपि संकल्पिताः कामाः संभवन्ति यथा यथा। तथा तथा मनुष्याणां तृष्णा विश्वं विसर्पति ॥ ३० ॥ अर्थ-मनुप्योंके जैसे जैसे इच्छानुसार संकल्पित भोगोंकी प्राप्ति होती है तैसें २ ही : इनकी तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती हुई समस्त लोकपर्यन्त विस्तारताको प्राप्त होती है ॥३०॥ ___ अनिपिध्याक्षसंदोहं यः साक्षान्मोक्तुमिच्छति । विदारयति दुर्बुद्धिः शिरसा स महीधरम् ॥ ३१ ॥ . अर्थ-जो पुरुष इन्द्रियसमूहको वश नहीं करके साक्षात् मोक्ष ( कर्मरहित ) होना चाहता है वह दुर्बुद्धि अपने मस्तककी टक्कर लगाकर पर्वतको तोड़ना चाहता है ऐसी अवस्थामें उसका मस्तकही फूटैगा, पर्वत तो किसी प्रकार फूटैगा ही नहीं ॥ ३१ ॥ मालिनी। इमिह विपयोत्यं यत्सुखं तद्धि दुःखं व्यसनविपिनवीजं तीव्रसंतापविद्वम् । कटुतरपरिपाकं निन्दितं ज्ञानवृद्धः । परिहर किमिहान्यैधूतवाचां प्रपञ्चैः ॥ ३२ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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