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________________ १९८ रायचन्द्र रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ___ अर्थ-इस लोक और परलोकके विगाड़नेवाले क्रोधको मुनिगण ही जीतते हैं। क्यों कि वे क्रोधके कारण प्राप्त होनेपर इस प्रकार भावना करते हैं, जो कि आगे कहते हैं ॥१३॥ यद्यद्य कुरुते कोऽपि मां खस्थं कर्मपीडितम् । चिकित्सित्वा स्फुटं दोषं स एवाकृत्रिमः सुहृत् ॥ १४ ॥ __ अर्थ-मुनिमहाराज ऐसी भावना करते हैं कि मैं कर्मसे पीडित हूं, कर्मोदयसे मुझमें कोई दोष उत्पन्न हुआ है सो उस दोषको अभी कोई प्रगट करै और मुझे आत्मानुभवमें स्थापित करके स्वस्थ करै वही मेरा अकृत्रिम मित्र ( हितैपी) है। भावार्थ-जो मेरे किसी कर्मके उदयसे दोष आया हो तो उसे काटकर जो मुझे सावधान करता है वही मेरा परम मित्र है । क्योंकि उसके प्रगट करनेसे मैं उस दोपको छोड़ दूंगा, अतएव उससे मुक्त हो जाऊंगा । इस प्रकार भावना करनेसे दोष करनेवालेसे क्रोध नहीं उपजता ॥१४॥ हत्वा खपुण्यसन्तानं मद्दोषं यो निकृन्तति । तस्मै यदिह रुष्यामि मदन्यः कोऽधमस्तदा ॥१५॥ अर्थ—पुनः ऐसी भावना करते हैं कि जो कोई अपने पुण्यका क्षय करके मेरे दोपोंको काटता है ( कहता है ) उससे यदि मैं रोप करूं तो इस जगतमें मेरी समान नीच वा पापी कौन है ? भावार्थ-जैसे कोई अपना धनादिक व्यय करके परका उपकार करता है उसी प्रकार जो अपने पुण्यरूपी परिणामोंको विगाड़कर मेरे दोप कहे अर्थात् मुझे सावधान करके मेरे दोष काटे तो ऐसे उपकारीपर क्रोध करना कृतघ्नताही है ॥ १५ ॥ आक्रष्टोहं हतो नैव हतो वा न विधाकृतः। मारितो न हतो धर्मो मदीयोऽनेन बन्धुना ॥१६॥ अर्थ-जो कोई अपनेको दुर्वचन कहै तो मुनि महाराज ऐसा विचार करते हैं किइसने दुर्वचनही तो कहे हैं, मेरा घात तो नहीं किया ? और कोई घात भी करै (अर्थात् लाठी वगैरहसे मारै) तो ऐसा विचारते हैं कि-इसने मुझे केवल माराही तो; काटकर दो खंड तो नहीं किया ? यदि कोई काटनेही लगै तो मुनिमहाराज विचारते हैं कि यह मुझे मारता है ( काटता है) परन्तु मेरा धर्म तौ नष्ट नहीं करता ? मेरा धर्म तो मेरे साथही रहैगा । अथवा ऐसा विचार करते हैं कि यह मेरा बड़ा हितैषी है, क्योंकि चैतन्यस्वरूप शुद्धात्मा इस शरीररूपी कारागारमें रुद्ध हूं (कैद हूं) सो यह इस शरीरको (कारागारको) तोड़कर मुझे कैदखानेसे छुटाता है, अतः यह मेरा बड़ा उपकार कर रहा है। इत्यादि विचारनेसे किसीसेभी क्रोध नहीं होता ॥ १६ ॥ संभवन्ति महाविना इह निःश्रेयसार्थिनाम् । ते चेत् किल समायाता: समत्वं संश्रयाम्यतः ॥ १७॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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