SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानार्णवः । १६५ वैराग्यरूपी दृढ कवचसे वेष्टित करके स्त्रियोंके कटाक्षवाणोंकी पड़ती हुई पंक्तिको निवारण कर || ४२ ॥ ब्रह्मचर्यविशुद्धयर्थं सङ्गः स्त्रीणां न केवलम् । त्याज्यः पुंसामपि प्रायो विटविद्यावलम्बिनाम् ॥ ४३ ॥ अर्थ- हे भाई! ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिये केवल स्त्रियोंके संसर्गकाहि निषेध नहीं किया है; किन्तु विटविद्याबलम्बी व्यभिचारी स्त्रीपुरुषोंका संगभी त्यागनेयोग्य कहा है ॥ ४३ ॥ मदान्धैः कामुकैः पापैर्वञ्चकैर्मार्गविच्युतैः । स्तब्धलुब्धाधमैः सार्द्धं संगो लोकद्वयान्तकः ॥ ४४ ॥ अर्थ - जो मदसे अंधे हैं, कामी हैं, पापी हैं ठग हैं कुमार्गी हैं, स्तब्ध हैं, लोभी हैं, अधम हैं तथा नीच हैं, इनमेंसे किसीकेभी साथ संसर्ग करना दोनों लोकोंका विगाड़नेवाला है, इसकारण इनकी संगति करना सर्वथा त्याज्य है ॥ ४४ ॥ अब इस प्रकरणको पूर्ण करते हुए कहते हैं, - स्रग्धरा । सूत्रे दत्तावधानाः प्रशमयमतपोध्यानलब्धावकाशाः शश्वत्संन्यस्तसंगा विमलगुणमणिग्रामभाजः स्वयं ये । श्रूयन्ते कामिनीनां स्तनजघनमुखा लोकनात्तेऽपि भग्ना मज्जन्तो मोहवा जिनपतियतयः प्राक् प्रसिद्धाः कथासु ॥ ४५ ॥ अर्थ - सिद्धान्तसूत्रों में दिया है चित्त जिन्होंने, ऐसे तथा प्रशमभाव और यम-नियम-तप-ध्यानादिमें समस्त काल बितानेवाले, निरन्तर परिग्रहके त्यागी, निर्मलगुणरूपी मणियोंके समूहको धारण करनेवाले ऐसे जैनयती ( रुद्रादिक ) भी स्त्रियोंके स्तन, जघन च मुखके देखनेसे भ्रष्ट होकर मोहरूपी समुद्रमें डुवेहुए कथाओं में प्रसिद्ध हैं अर्थात् सुने जाते हैं । भावार्थ- स्त्रीका संसर्गही ऐसा है कि जिससे कोईभी नहिं वचते । और जो धीर, वीर महापुरुष इसके संसर्गसे बचते हैं वे धन्य हैं ॥ ४५ ॥ इसप्रकार स्त्रीके संसर्गका निषेध वर्णन किया दोहा | तपसी मौनी संयमी, श्रुतपाठी युत मान । तरुणी संसर्ग, विगर्दै तजहु सुजान ॥ १४ ॥ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते ब्रह्मचर्यमहात्रतान्तर्गतस्त्रीसंसर्गनिषेघवर्णनं नाम चतुर्दशं प्रकरणम् ॥ १४
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy