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________________ ज्ञानार्णवः ।। उत्तानोच्छूनमण्डूकदारितोदरसन्निभे । चमरन्ध्रे मनुष्याणामपूर्वः कोऽप्यसदहः ॥२३॥ अर्थ-स्त्रियोंका योनिरन्ध्र उत्तान कहिये उलटे किये और उच्छून कहिये सूझे हुए मेंडकके विदारे फाड़े हुए पेटकी आकृतिके समान घृणास्पद है । सोही कवि कहता है कि ऐसे घृणास्पद अपवित्र स्थानमें कोई अपूर्व असमीचीन दुराग्रह है, जो मनुप्य मलिना चरण करते हैं ॥ २३ ॥ .:. सर्वाशुचिमये काये दुर्गन्धामध्यसंभृते। . रमन्ते रागिणः स्त्रीणां विरमन्ति तपखिनः ॥ २४ ॥ अर्थ-दुर्गन्ध विष्ठादिकसे भरे और सर्वत्र अशुचिमय स्त्रियोंके शरीर में रागीजनही रमते हैं किन्तु तपखी उससे विरक्त ही रहते हैं ॥ २४ ॥ मालिनी। कुथितकुणपगन्धं योषितां योनिरन्धं कृमिकुलशतपूर्ण निर्झरत्क्षारवारि। त्यजति मुनिनिकायः क्षीणजन्मप्रवन्धो भजति मनवीरप्रेरितोऽङ्गी वराकः ॥ २५ ॥ : अर्थ-स्त्रियोंका योनिरन्ध्र बिगड़े हुए व सड़ें हुए मुर्देकीसी दुर्गंधवाला है, कीड़ोंके सैकडों समूहोंसे भराहुआ है और क्षारजल (मूत्र) झरता रहता है सो जिनके संसारकां अन्त आगया है ऐसे मुनिगण तो इसे छोड़ते हैं और जो रंक कामरूपी सुभटकरके प्रेरित है वे सेवन करते हैं ॥ २५ ॥ सोरठा। - कामीके रति होय, अशुचि मलिनतियतनविषै। पावै दुर्गति सोय, मुनि त्याग दिव शिव लहै ॥ १३ ॥ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते मैथुन प्रकरणं नाम त्रयोदशः सर्गः ॥ १३ ॥ अथ चतुर्दशः सर्गः। . . . · आगे स्त्रियोंके संसर्गसे ब्रह्मचर्य भङ्ग होता है इस कारण उसके निषेधका वर्णन करते हैं, विरज्याशेषसंगेभ्यो यो घृणीते शिवश्रियम् । : स क्रुद्धाहेरिव स्त्रीणां संसर्गाद्विनिवर्तते ।। १ ।।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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