SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ — जैसे रोगी पथ्यकी इच्छासे अपथ्य सेवन करता है उसी प्रकार कामी पुरुष निर्लज्ज होकर सुखकी इच्छासे स्त्रियोंके अंगों का दर्शनस्पर्शनादि करता है; परंतु उसकी - बड़ी भूल है ॥ ६ ॥ ते यथा दीपं निर्वाणमपि नन्दितम् । स्मरमूढः सुखं तद्वद्दुःखमप्यत्र मैथुने ॥ ७ ॥ अर्थ – जिसप्रकार दीपकके वुझजानेपर अनेक जन कहा करते हैं कि ' दीपक बढ़ गया, इसी प्रकार काममूढ पुरुषभी मैथुनमें दुःखही दुख है तोभी उसको सुख कल्पना करलेता है ॥ ७ ॥ किम्पाकफलसंमानं वनितासंभोग संभवं सौख्यम् । आपाते रमणीयं प्रजायते विरसमवसाने ॥ ८ ॥ अर्थ — स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न हुआ सुख किम्पाकफल ( इन्द्रायणके फल ) के समान सेवन करते समय तो रमणीय भासता है, परन्तु अन्तमें विरस है । भावार्थजैसे - इन्द्रायणका फल देखने में सुन्दर सुगन्धित और खाने में मिष्ट होता है; परन्तु उदरमें जाकर हलाहल विषकासा काम करता है. इसी प्रकार स्त्रीजनित सुखभी सेवन करते रमणीक है परन्तु तज्जन्य पापसे नरक निगोदादि दुर्गतियोंके दुःख सहने पड़ते हैं ॥ ८ ॥ मैथुनाचरणे कर्म निर्घृणैः क्रियतेऽधमम् । पीयते वदनं स्त्रीणां लालाम्बुकलुषीकृतम् ॥९॥ अर्थ — निर्दय अथवा ग्लानिरहित पुरुष मैथुनावस्था में कैसा नीचकर्म करते हैं कि-स्त्रियोंके मुखसे निकली हुई लालोंसे मैले किये हुए मुखका पान करते है, अर्थात् चुंबन करते हैं । हा ! इन मूर्खोको ग्लानिभी नहीं आती ॥ ९ ॥ कण्डूयनतनुखेदाद्वेत्ति कुष्ठी यथा सुखम् । तीव्रस्मररुजातङ्कपीडितो मैथुनं तथा ॥ १० ॥ अर्थ - जैसे कोढ़ी पुरुष शरीरको खुजाने तथा तपानेसे सुख मानता है उसी प्रकार मानता है । यह बड़ा कष्टदायक जलनको पैदा तीव्र कामरूपी रोगसे दुःखित हुआ पुरुषभी मैथुनकर्मको सुख विपर्यय है,क्योंकि जैसे खुजानेसे खाज बड़ती है और अन्तमें करती है इसी प्रकार स्त्रीका सेवनभी कामसेवनेच्छाको उत्तरो उत्तर बढ़ाता है और अन्तमें कष्टदायक होता है ॥ १० ॥ अशुचीन्यङ्गनाङ्गानि स्मराशीविषमूर्च्छिताः । जिह्वाभिर्विलिहन्त्युचैः शुनीनामिव कुक्कुराः ॥ ११ ॥ अर्थ---यद्यपि स्त्रियोंके अंग अशुचि हैं अर्थात् अपवित्र हैं परन्तु उन्हें कामरूपी
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy