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________________ ज्ञानार्णवः । १११ अर्थ-संरंभ, समारंभ और आरंभ इस त्रिकको मनवचनकायकी तीन २ प्रवृत्तियौंसे तथां क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों और कृत, कारित, अनुमोदना ( अनुमति वा सम्मति ) से क्रमसे गुणन करनेपर हिंसाके भेद (१०८) होते हैं, तथा अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्चलिनी कषायोंके उत्तरभेदोंसे गुणन करनेसे ४३२ भेद भी हिंसाके होते हैं ॥ १० ॥ अतः प्रमादमुत्सृज्य भावशुद्ध्याङ्गिसन्ततिम् । यमप्रशमसिद्ध्यर्थं बन्धुवुद्ध्या विलोकय ॥ ११ ॥ अर्थ — उपर्युक्त संरंभादिक हिंसापरिणामके १०८ अथवा ४३२ भेद हैं. अतः हे आत्मन् ! तू प्रमादको छोड़कर भावोंकी शुद्धिके लिये जीवोंकी सन्ततिको ( समूहको ) बन्धु (भाई, हित, मित्र) की दृष्टिसे अवलोकन किया कर । अर्थात् प्राणीमात्रसे शत्रुभाव न रखकर सबसे मित्रभाव रख और सबकी रक्षामें मनवचनकायादिकसे प्रवृत्ति कर ॥ ११ ॥ 'यजन्तुबन्धसंजातकर्मपाशाच्छरीरिभिः । श्वनादौ सह्यते दुःखं तद्वक्तुं केन पार्यते ॥ १२ ॥ अर्थ - जीवोंके घात ( हिंसा) करनेसे पापकर्म उपार्जन होता है उसका जो फल अर्थात् दुःख नरकादिक गतिमें जीव भोगते हैं वह वचनके अगोचर है । अर्थात् बचनसे कहने में नहीं आसकता ॥ १२ ॥ हिंसैव नरकागारप्रतोली प्रांशुविग्रहा । कुठारी द्विधा कर्तुं भेत्तुं शूलोऽतिनिर्द्दया ॥ १३ ॥ १ हिंसा में उद्यमरूप परिणामोंका होना तो संरंभ है, हिंसांके साधनोंमें अभ्यास करना ( सामग्री मिठांना) समारंभहै और हिंसामें प्रवर्तन करना आरंभ है । इन तीनको मनवचनकायके योगसे 'गुणा करनेसे नव होते हैं और कृत, कारित, अनुमोदनासे गुणा करनेसे २७ फिर इनको क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कपायोंसे गुणनेसे १०८ हिंसाके भेद होते हैं । कृत- आप स्वाधीन होकर करै, कारित - अन्यसे करवाये और अन्य कोई हिंसा करता हो उसको भला जाने उसे अनुमोदना वा अनुमत कहते हैं। जैसे धकृतकायसंरंभ १ मानकृतकायसंरंभ २ मायाकृतकायसंरंभ ३ लोभकृतकायसंरंभ ४ क्रोधकारितका संरंभ ५ मानका रित कायसंरंभ ६ मायाकारित कायसंरंभ ७ लोभकारित कायसंरंभ ८ क्रोधानुमत कायसंरंभ ९ मानानुमत कायसंरंभ १० मायानुमत कायसंरंभ ११ लोभानुमत कायसंरंभ इस प्रकार कायके संरंभके १२ भेद, इसी प्रकार वचनसंरंभके १२ भेद और मनसंरंभके १२ भेद मिलकर ३६ भेद संरंभके हुए और इसी प्रकार ३६ समारंभके और ३६ आरंभके सब मिलकर १०८ भेद हिंसाके होते हैं। और क्रोध, मान, माया, तथा लोभ इन चार कपायोंके अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन इन चार भेदों गुणन करनेसे ४३२ भेद भी हिंसाके होते हैं. जप करनेकी मालामें ३ दाने ऊपर और १०८ दाने माला में होते हैं सो इसी संरंभ समारंभ आरंभके तीन दाने मूलमें रखकर उसके भेदरूप ( शाखारूप १०८ दाने डाले जाते हैं । अर्थात् सामायिक (संन्ध्यावंदन जाप्यादि ) करते समय क्रमसे १०८ आरंभोंका ( हिंसारूप पापकमोंका) परमेष्ठीके नामस्मरणपूर्वक त्याग करना चाहिये, तत्पश्चात् धर्मध्यानमें लगना चाहिये |
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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