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________________ अढार पापस्थानकनी सद्याय. (१३) खटो, ते पामे बहु खेदो जी ॥ धन ॥५॥ परने दोष न अब्ता दीजीयें, पीजीये जो जिन वाणी जी ॥ नपशम रससुं रे चित्तमा नीजीयें, कीजी. ये सुजस कमाणी जी ॥ धन ॥ ५ ॥ इति तेरमा पापस्थानक स० ॥ ॥अथ चौदमा पैशुन्य पापस्थानकनी साय प्रारंनः॥ ॥शिरोहीनो शालुहो के नपर योधपुर। ॥ ए देशी ॥ पापस्यानक दो के चौदमुं आकरूं, पैशुन्यपणान होके व्यसन ने अति बुरुं ॥ अशन मात्रनो होके शुनक कृतज्ञ , तेहथी मूंमो होके पिशुन लवे पडे ॥१॥ ब || हु नपकरिये होके पिशनने परें परें, कलहनो दाता होके होय ते ऊपरें । | दूधे धोयो होके वायस नजलो, किम होय प्रकृतें होके जे शामलो ॥ २॥ तिलह तिलत्तण होके नेह ने त्यां लगें, नेह पिणछे होके खल कहि ये जगें ॥ इम निःस्नेही होके निरदय त्दृदयश्री, पिशुननी वार्ता होके न |वि जाये कधी ॥३॥ चाडी करतां होके वाडि गुणतणी, सूके चूके हो के ख्याति पुण्यतणी ॥ कोइ नवि देखे होके वदन ते पिशुनतणु, निर्मल कुलने होके दीये ते कलंक घणं ॥४॥ जिम सजान गुण होके पिशुनने दूषिय, तिम तिणे सहेजें होके त्रिन्नुवन नूषियोजस्में मांज्यो होके दर्पण होय जलो, सुजस सवार होके सऊन सुकुल तिलो ॥५॥इति समाप्त। ॥अथ पंदरमा रति अरति नामें पापस्यानकनी सचाय ॥ ॥ प्रथम गोवाला तणे नवेंजी ।। ए देशी ॥ जिहां रति कोश्क कारणे जी, अरति तिहां पण होय ।। पापस्थानक ते पनरमुंजी, तेणे ए एकज जोय ॥१॥ सुगुण नर समजो चित्तमजार ॥ एकरणी ॥ चित्त तो अ. रति रति पाखशुं जी, नडे पंखी रे चित्त ॥ पिंजर शुभ समाधिमें जी, रं. ध्यो रहे ते मित्त ॥ सु॥२॥ मन पारद नडे नहीं जी, पामि अरति रति आग ॥ तो हुये सिदि कल्याणनी जी, नावट जाये नाग ॥ सु ॥३॥ | रतीवशे अरति करीजी, नुतारय होय जेह ॥ तस विवेक आवे नहीं जी, | होये न कुःखनो बेद ।। सु॥४॥ न रति अरति ने वस्तुश्री जी, ते नपजे मनमांहिं ॥ अंगज वचन सुत हुन जी, यूकादिक नहि काही ॥सु॥५॥ मनकल्पित रति अरति ने जो, नहीं सत्य पर्याय ।। नहीं तो वेची वस्तुमां जी, किम ते सवि मटि जाय ॥ सु॥६॥ जेह अरति रति नवि गणे जी, सुख दुःख दोय समान ॥ ते पामे जस संपदा जी, वाधे जग
SR No.010852
Book TitleSazzayamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages425
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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