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________________ प्रेमी-अभिनदन- प्रथ ७६ को टर्नर स्पष्ट ही 'वि+अच् (अञ्च् ) ' धातु अथवा 'व्यच्-' धातु से बनाते हैं, क्योकि तुलना के लिए उनका दिया हुआ 'उरुव्यञ्च्-' शब्द ‘वि+अच् (ग्रञ्च् ) ' धातु से और 'व्यचस्'- 'त्र्यच्' धातु से बना हुआ है।' इनमे से 'वि + अच् (अञ्च्)' से 'वीच्य-' का बनाना सरल है, क्योकि “निर्वल" रूपो में 'अच्- (अञ्च् ) ' का 'थ' लुप्त हो जाता है, श्रीर उसके पूर्ववर्ती 'इ- 'उ' दीर्घं हो जाते है ।' किन्तु 'व्यच्' धातु से 'वीच्य'- बनाने में कुछ कठिनता है । 'व्यच्' का दूसरा, "निर्बल", रूप 'विच्' मिलता है, ' 'वीच्' नही, और 'विच्' से 'विन्य-' वन सकता है, 'वीच्य-' नही । हाँ, एक तरह से टर्नर को बात का समाधान भी हो सकता है। संस्कृत व्याकरण में 'व्यच्' एक स्वतन्न धातु है, किन्तु आधुनिक विद्वानो की सम्मति है कि यह धातु वास्तव में 'वि+अच् (अञ्च् )' का ही समस्त रूप है, पृथक् धातु नहो । 'व्यच्' का अर्थ है "अपने में समेट लेना, घेर लेना, अपने में समा जाने देना, अपने अन्दर अवकाश या स्थान देना " तथा "धोखा देना, छलना” । 'अच्' अथवा 'अञ्च्" का अर्थ है "जाना, चलना, मुडना, झुकना, रुझान होना” और 'वि+अच् (श्रञ्च्)' का अर्थ है "विविध दिशाओ में जाना, इधर-उधर हट जाना, विस्तार करना" तथा "इधरउघर चलना, दोहरी चाल चलना, धोखा देना" । इस प्रकार 'व्यच्' प्रोर 'वि+अच् (अञ्च् )' के अर्थों में पर्याप्त सादृश्य है | रूप में तो दोनो तुल्य है ही । अत इन दोनो को मूल मे एक मान लेने में कोई बाधा नही । इतनी वात अवश्य है कि संस्कृत भाषा में वैदिक काल से ही 'व्यच्' का अपना पृथक् अस्तित्व वन गया है । अस्तु । 'वि + अच् (अञ्च्)' अथवा 'व्यच्' धातु से स० * ' वीच्य-' और स० * ' वीच्य-' से प्रा० 'विच्च' की उत्पत्ति, ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से, किसी न किसी तरह सम्भव मानी जा सकती है । किन्तु अर्थ की कठिनता टर्नर की व्युत्पत्ति में भी रह जाती 1 प्रा० 'विच्च' का अर्थ "मार्ग" करना ग्रमगत है, यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । फिर " मार्ग" का 'व्यच्' अथवा 'वि + अच् (श्रञ्च् ) ' धातुग्रो के उपर्युक्त से कोई सीधा सम्बन्ध भी नही बनता और न इन धातुओं के अर्थो से "मध्य" अर्थ की ही सगति बनती है । 'विच्च' के अन्य अर्थं "अन्तर, अवकाश" से 'व्यच्' और 'वि + अच् (अञ्च् )' के "विस्तार करना, प्रवकाश देना " अर्थों का सम्वन्ध अवश्य वन सकता है । (तुलना के लिए दिये गय 'उरुव्यञ्च्-' तथा 'व्यचस्' शब्दो गे भी यही सकेत मिलता है)। किन्तु “अन्तर, अवकाश" विच्च' का मुख्य अर्थ नही है (दे० पृ० ६६) । अन्त में एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि टर्नर ने प्रा० 'विच्न' के दो चकारो के कारण इसके पूर्वज संस्कृत शब्द को *'वीच्य' कल्पित किया है, क्योकि संस्कृत के दीर्घस्वर -1 व्यञ्जनसयोग के स्थान पर प्राकृत मे ह्रस्वस्वर + व्यञ्जनसयोग, अथवा दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन हो जाता है,' जैसे स० 'मार्ग' > प्रा० 'मग्ग-', स० 'दीर्घ' > प्रा० 'दीघ-' इत्यादि । किन्तु स० * 'विच्य -' का भी प्रा० मे 'विच्च' ही बनेगा। फिर "वीच्य-' की कल्पना करना सर्वथा अनावश्यक है । प्रत्युत 'व्यच्' धातु से *' विच्य -' बनाना ही सरल, नियमानुकूल है, 'वीच्य-' बनाने मे 'देखिये ग्रासमन्, "वुइर्तर्-बुख् त्सुम् ऋग्वेद" (Woeiter - buch zum Rig-Veda, लाइप्सिश, द्वितीय सस्करण, १९३६) में यही दोनों शब्द । ★ विशेष विवरण नीचे, पृ० ६६ पर । स० का 'वीचि'- ("छल, कपट, लहर, तरङ्ग" ) शब्द भी सम्भवत 'वि + श्रच्' धातु से बना है। देखिये, मॉनियर विलियम्स में 'वीचि' शब्द | देखिये, व्हिट्ने, "ऍ सस्कृत प्रेमर", १६८२ | * देखिये, व्हिट्ने,,'ऍ संस्कृत प्रेमर", १०८७ (f), तथा मॉनियर विलियम्स, "इग्लिश-स० डिक्शनरी" में 'व्यच्' धातु । 'वास्तव में 'अच्' और 'श्रञ्च' एक ही धातु है । 'अञ्च् "प्रबल" रूप है और 'श्रच्' "निर्बल"। देखिये, नीचे पृ० ६६ तथा मॉनियर विलियम्स में यही दोनो धातुएँ । 'देखिये, पिशेल "ग्रामाटिक, देर् प्राकृत-प्रास्तेन्” ६२-६५, ७४-७६ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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