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________________ साधक प्रेमी जी ७४५ नहीं हिचकिचाते। अपनी किफायतशारी के कारण ही वे स्वाभिमान की रक्षा कर सके है। यही नहीं, कितने ही लेखकों को भी उनके स्वाभिमान की रक्षा करने में वे महायक हुए है। प्रेमी जी का सम्पूर्ण जीवन सघर्ष करते ही बीता है और जब उनके आराम के दिन आये तव घोर देवी दुर्घटना ने उनके सारे मनसूबो पर पानी फेर दिया | देव की गति कोई नही जानता | ईश्वर ऐमा दुख किसी को भी न दे। उक्त वज्रपात का ममाचार प्रेमी जी ने हमें इन शब्दो में भेजा था "मेरा भाग्य फूट गया और परमो रात को १२ वजे प्यारे हेमचन्द्र का जीवन-दीप बुझ गया। अव सव ओर अन्धकार के सिवाय और कुछ नही दिखालाई देता। कोई भी उपाय कारगर नहीं हुअा। बहू का न थमने वाला आफन्दन छाती फाड रहा है। उसे कैसे समझाऊँ, समझ में नहीं आता। रोते-रोते उसे गश आ जाते है। विधि की लीला है कि म माठ वर्ष का बूढा बैठा रहा और जवान वेटा चला गया। जो वात कल्पना मे भी न थी, वह हो गई। ऐसा लगताहै कि यह कोई स्वप्न है, जो शायद झूठ निकल जाय।" अाज मे दम वर्ष पहले यही वज्रपात हमारे स्वयि पिता जी पर हुआ था। हमारे अनुज रामनारायण चतुबंदी का देहान्त ६ अक्टूबर मन् १९३६ को कलकत्ते में हुआ था। अपने पिता जी की स्थिति की कल्पना करके हम प्रेमीजी को घोर यातना का कुछ-कुछ अन्दाज़ लगा मके। जर्मनी के महाकवि गेटे को निम्नलिखित कविता चिरस्मरणीय है “Who never ate his bread in sorrow Who never spent the midnight hours Weeping and waiting for the morrow He knows you not, ye heavenly powers" अर्थात्--"ए दैवी-यक्तियो । वे मनुष्य तुम्हें जान ही नहीं सकते, जिन्हें दुःखपूर्ण समय मे भोजन करने का दुर्भाग्य प्राप्त नहीं हुया तथा जिन्होने रोते हुए और प्रात काल की प्रतीक्षा करते हुए राते नहीं काटी।" जिनके जीवन को धारा विना किसी रुकावट के सीधे-सादे ढङ्ग पर वहती रहती है, जिनको अपने जीवन में कभी भयकर दुखो का सामना नही करना पडता, वे प्रेमी जो की हृदय-वेदना की कल्पना भी नही कर सकते। समान अपराधी एक वात मे प्रेमी जी और हम समानरूप से मुजरिम है । जो अपराव हमसे वन पडा था, वही प्रेमी जो से। हमारे स्वर्गीय अनुज रामनारायण ने प० पद्मसिंह जी से कई वार शिकायत की थी "दादा दुनिया भर के लेख छापते है, पर हमे प्रोत्साहन नही देते।" यही शिकायत हेमचन्द को अपने दादा (पिता जी) से रही । प्रेमी जी ने अपने सस्मरणो मे लिखा था यो तो वह अपनी मनमानी करने वाला प्रवाध्य पुत्र था, परन्तु भीतर से मुझे प्राणो से भी अधिक चाहता था। पिछली वीमारी के समय जव डा० करोडे के यहां दमे का इजैक्शन लेने वाँदरा गया तव मेरे शरीर में खून न रहा था । डाक्टर ने कहा कि किसी जवान के खून की ज़रूरत है । हेम ने तत्काल अपनी वाह वढा दी और मेरे रोकतेरोकते अपने शरीर का प्राधा पौड रक्त हँसते-हँसते दे दिया | मेरे लिए वह सव कुछ करने को सदा तैयार था। ___"अब जव हेम नही रहा तब सोचता हूँ तो मेरे अपराधो की परम्परा सामने आकर खडी हो जाती है और पश्चात्ताप के मारे हृदय दग्ध होने लगता है। मेरा सवसे वडा अपराध यह है कि मैं उसकी योग्यता का मूल्य ठीक नही आंक सका और उसको आगे बढने से उत्साहित न करके उल्टा रोकता रहा। हमेशा यही कहता रहा, "अभी और ठहरो। अपना ज्ञान और भी परिपक्व हो जाने दो। यह तुमने ठीक नहीं लिखा। इसमें ६४
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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