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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ५८ अज्ञात को ज्ञात करने की मेरी उत्कट अभिलाषा ने मुझे इतिहास के विषय की ओर प्रेरित किया। जैनधर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी और मूर्तिपूजक पक्ष के पारस्परिक मतभेदो का वास्तविक मूल क्या है और उसके साथ ही जैन-शास्त्रो में भारतवर्ष आदि के पुरातन युग के विषय में जो बाते लिखी हुई है उनका वास्तविक स्वरूप क्या है, इसके जानने की मुझे स्वाभाविक ही वडी उत्कठा होने लगी। उसके समाधान के लिए कौन-सा साहित्य है और वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसका मुझे कोई ज्ञान नही था। जैन साधुनो की तद्विपयक कोई पुस्तक मिलती तो मै उसका विचारपूर्वक मनन करता रहता था। इस समय तक में हिन्दी और गुजराती दोनो भाषाएँ ठीक-ठीक समझने लगा था, परन्तु अपने सम्प्रदाय के सिवाय इन भाषामो में लिखी गई अन्य पुस्तकें पढने या देखने का कोई अवसर नहीं मिला था। एक दिन अकस्मात एक बहुत ही विद्वान समझे जाने वाले महामुनिराज के अत्यन्त प्रिय शिष्य के पास हिन्दी-गुजराती की उक्त प्रकार को पुस्तको का ढेर पडा देखा, जिनमे टॉड के राजस्थान का हिन्दी रूपान्तर भी था। उस पुस्तक को मैने आद्योपान्त पढा और पढने पर ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैने कोई अद्भुत ज्ञान प्राप्त कर लिया है। अपनी जाति के परमारवश तक का मुझे अबतक कुछ भी ज्ञान न था। टॉड का राजस्थान पढ़ कर मुझ में अपनी जाति के गौरव की अहन्ता जाग्रत होने लगी। इसी अन्य में जन-समाज और जैन-गर्म के इतिहास के भी कुछ उल्लेख यत्र-तत्र पढने मे पाये, जिससे जैन-जातियो और तीर्थों आदि के इतिहास की ओर भी मेरी जिज्ञासा बढ़ने लगी। इसके बाद से तो में इतिहास की पुस्तको के प्राप्त करने की कोशिश में निरन्तर लीन रहने लगा। उक्त साधु महाराज के पास से 'सरस्वती' के कुछ प्रक प्राप्त करके पढे । उनमें सभी विषय के अच्छे-अच्छे विद्वानो द्वारा लिखे लेख थे। यद्यपि उन सब लेखो को मै नही समझ सका तथापि जो भी मेरी समझ में आये, उन्हें मैंने कई बार पढ़ा। कुछ समय पश्चात् मुझे पाटण आदि के पुरातन जैन-भडारो का समुद्धार करने वाले इतिहाम-प्रेमी पूज्यपाद प्रवर्तक श्री कान्तिविजय जी महाराज की सेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां मुझे पाटण के भडारो तथा 'सरस्वती' पत्रिका के अको को देखने का अवसर मिला। प्रेमीजी द्वारा सम्पादित 'जनहितैषी' मैने सर्वप्रथम यही पर देखा । उसके सब प्रक, जो वहाँ सुलभ हो सके, बडे चाव से पढ़ गया। तब से 'सरस्वती' और 'जनहितैषी' की हिन्दी को मैने अपनी भावी आदर्श भाषा के रूप में निश्चित किया। 'जैन-हितषी' मे जैन-इतिहास और साहित्य विषयक छोटे-बडे लेख प्रेमी जी नियमित रूप से लिखा करते थे। उन्हें पढ-पढ़ कर मै भी वैसे ही लेख लिसने का प्रयत्ल करने लगा। इस बीच प्रेमीजी का एक छोटा-सा लेख जैन शाकटायन व्याकरण पर लिखा हुआ मेरे पढने में आया। उन शाकटायनाचार्य के विषय में एक नवीन प्रमाण मुझे श्वेताम्बर ग्रन्थ में उपलब्ध हुआ था, जिसके आधार पर मैने एक छोटा-सा लेख तैयार किया। उस लेख को पहले तो 'जनहितैषी' में छपने के लिए भेजने की इच्छा हुई, लेकिन विचार हुआ कि प्रेमीजी दिगम्बर सम्प्रदायानुयायी होने के कारण शायद मेरा लेख अपने पत्र में छापना पसन्द न करें। प्रेमीजी से उस समय तक मेरा कोई विशेष परिचय न था। केवल इतना ही जानता था कि वे 'जैनहितपो' के सम्पादक है और हिन्दी के एक अच्छे लेखक माने जाते है। अत 'सरस्वती' में प्रकाशनार्थ वह लेख मैने प० महावीरप्रसाद जी द्विवेदी के पास भेज दिया। कोई दस-बारह दिन बाद मुझे द्विवेदी जी के हाथ का लिखा एक पोस्टकार्ड मिला। लिखा था "श्रीमन्, शाकटायनाचार्य पर का आपका लेख मिला । धन्यवाद । लेख अच्छा है। छापूगा। , विनीत म०प्र०द्विवेदी"
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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