SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 782
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्व-मानव गाधी ७२७ जव प्रजा स्थूल और सूक्ष्म, सब प्रकार की चोरी से घृणा करने लगेगी, व्रतपूर्वक उससे मुँह मोड लेगी, तो राजा को, शामकको, शासनसत्ता को विवश भाव से प्रजा के अनुकूल बनना पडेगा । पुरानी उक्ति हैं, 'यथा राजा तथा प्रजा । आज हमे इस उक्ति को बदलना है। नये युग की नई उक्ति होगी 'यथा प्रजा तथा राजा ।' और जव राजा ही न रहेंगे, तब तो 'यथा प्रजा, तथा प्रजा' की उक्ति ही सर्वमान्य हो जायगी । जव उद्बुद्ध प्रजा स्वयं अपना शासन करेगी तो बहुत सोच-समझ कर ही करेगी और तव वह अयथार्थ को यथार्थ की, अयोग्य को योग्य की और मिथ्या को मत्य की प्रतिष्ठा कभी न देगी । यही गाधी जी का स्वप्न है और इमीलिए वे समाज में और राज में अस्तेय को प्रतिष्ठित करना चाहते है । उनका यह सदेश अकेले भारत के लिये नही, अखिल विश्व के लिये है । श्राज उसकी भाषा में दुनिया के जो देश मभ्य और सम्पन्न माने जाते हैं, वे ही छद्मवेग में चोरी के सबसे वडे पृष्ठपोषक हैं । अपने अधीन देशो का सर्वस्वापहरण करने में जिस कूट बुद्धि और कुटिल नीति से वे काम लेते हैं, ससार के इतिहास मे उसकी कोई मिमाल नही । इस सर्वव्यापी स्तेय भावना का प्रतिकार करके विश्व में अस्तेय की प्रतिष्ठा बढाने के लिए अस्तेय के व्रतधारियो की एक सेना का सगठन जरूरी है । गावी जी श्राज इसी की साधना में निरत है । जहाँ सत्य है, हिमा है और अस्तेय है, वहाँ ब्रह्मचर्य को आना ही है । गाधी जी लिखते है "ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म की - सत्य की शोध में चर्या, श्रर्थात् तत्सम्वन्वी ग्राचार । इस मूल अर्थ से सर्वेन्द्रिय -सयम का विशेष अर्थ निकलता है । केवल जननेन्द्रिय-सयम के अधूरे अर्थ को तो हमें भूल ही जाना चाहिए ।" वे आगे और लिखते है "जिमने सत्य का आश्रय लिया, जो उसकी उपासना करता है, वह दूसरी किसी भी वस्तु की प्राराधना करे, तो व्यभिचारी वन जाय । फिर विकार की आराधना तो की ही कैसे जा सकती है ? जिसके सारे कर्म एक सत्य के दर्शन के लिए ही है, वह सन्तान उत्पन्न करने या घर - गिरस्ती चलाने में पड ही कैसे मकता है ? भोग-विलास द्वारा किसी को मत्य प्राप्त होने की श्राज तक एक भी मिसाल हमारे पास नही है । श्रहिंसा के पालन को लें, तो उसका पूरा-पूरा पालन भी ब्रह्मचर्य के विना असाध्य है । अहिंसा अर्थात् सर्वव्यापी प्रेम । जिस पुरुष ने एक स्त्री को या स्त्री ने एक पुरुष को अपना प्रेम सौंप दिया उसके पास दूसरे के लिए क्या बच गया ? इसका अर्थ ही यह हुआ कि 'हम दो पहले और दूसरे सब वाद को ।' पतिव्रता स्त्री पुरुष के लिए और पत्नीव्रती पुरुष स्त्री के लिए सर्वस्व होमने को तैयार होगा, इससे यह स्पष्ट है कि उसमे मर्वव्यापी प्रेम का पालन हो ही नही सकता । वह सारी सृष्टि को अपना कुटुम्ब बना ही नही सकता, क्योकि उसके पाम उसका अपना माना हुआ एक कुटुम्ब मौजूद है या तैयार हो रहा है । जितनी उनकी वृद्धि, उतना ही सर्वव्यापी प्रेम में विक्षेप होगा। मारे जगत् में हम यही होता हुआ देख रहे है । इसलिए श्रमाव्रत का पालन करने वाला विवाह के बन्धन मे नही पड सकता, विवाह के बाहर के विकार की तो बात ही क्या ?" यह है गावी जी की कल्पना का ब्रह्मचर्यं । ब्रह्म की अर्थात् सत्य की शोध में जीवन का यह सकल्प, यह व्रत, कितना उदात्त है, कितना भव्य । देश-काल की कोई सीमा इसे वाँध नही सकती । मानव-जीवन का यह शाश्वत और मनातन धर्म है, जिसके भरोसे दुनिया आज तक टिकी है । गाघोजी स्वभाव से गगनविहारी है । असीम की, अनन्त की, अखड और अविभाज्य उपासना उनका जीवन ध्येय है । वे अपने को श्रद्वैतवादी कहते हैं और उनके द्वैत मे सारा ब्रह्माड समाया हुआ है । अणु-परमाणु मे लेकर जड-चेतन, स्थावर-जगम, सभी कुछ उनकी चिन्ता का, उपासना का विषय है। वे सब का हित, सब का उत्कर्षं चाहते है । सव के कल्याण के लिए अपनी अशेष शक्तियो का विनियोग उनके जीवन की प्रखर साधना रही है । उनके लिए सव कोई अपने है, पराया कोई नहीं । जिस परम सत्य की शोध में उनके जीवन का क्षण-क्षण वीतता है, उसी ने उनको अजातशत्रु बनाया है। वे अपने कट्टर -से-कट्टर विरोधी को भी अपना शत्रु नही मानते। उसके प्रति मन मे किसी तरह का कोई शत्रुभाव नही रखते । मनुष्य की मूलभूत अच्छाई में उनकी श्रद्धा श्रविचलित है, इसीलिए दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति को भी वे अपना बन्धु और
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy