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________________ ७१४ प्रेमी-अभिनदन-ग्रय हमें जैनागमो में यत्र-तत्र विवरे हुए गणितसूत्र मिलते हैं। इन सूत्रो में से कितने ही नूत्र अपनी निजी विशेषता के साथ वात्तनागत सूक्ष्मता भी रखते है । प्राचीन जैन गणितसूत्रो में ऐसे भी कई नियम है, जिन्हे हिन्दू गणितज्ञ १४वी और १५वी शताब्दी के वाद व्यवहार में लाये है। गणितशास्त्र के नख्या-तम्बन्धी इतिहान के ऊपर दृष्टिपात करने से यह भलीभांति भवगत हो जाता है कि प्राचीन भारत में सख्या लिखने के अनेक फायदे थेजने वस्तुओ के नाम, वर्णमाला के नाम, डेनिग ढग के सख्ला नाम, महावरो के सक्षिप्त नाम । और भी कई प्रकार के विशेप चिह्नो द्वारा नल्याएं लिखी जाती थी। जैन गणित के फुटकर नियमो में उपर्युक्त नियमो के अतिरिक्त दानमिक क्रम के अनुसार मस्या लिखने का भी प्रकार मिलता है। जैन-गणित-अन्यों में अक्षर मला कोरीति के अनुसार दशमलव और पूर्व मस्याएँ भी लिखी हुई मिलती है। इन सख्याओ का स्थान-मान बाई ओर मे लिया गया है। श्रीधराचार्य की ज्योति न विधि में आर्यभट के मस्याक्रम मे भिन्न नस्याक्रम लिया गया है। इन अन्य में प्राय अव तक उपलब्ध मभी सस्याक्रम लिजे हुए मिलते है। हमें वराहमिहिर-विरचित वृहत्महिता को भट्टोत्पली टीका में भद्रबाहु की सूर्यप्रज्ञप्ति-टीका के कुछ अवतरण मिले हैं, जिनमें गणित सम्बन्धी सूक्ष्मताओ के माय नळ्या लिवने के सभी व्यवहार काम में लाये गये है। भट्टोत्पल ने ऋपिपुत्र, भद्रबाहु और गर्ग (वृद्ध गर्ग) इन तीन जैनाचार्यों के पर्याप्त वचन उद्धृत किये है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भट्टोत्पल के समय में जैन गणित बहुत प्रनिद्व रहा था, अन्यया वे इन आचार्यो का इतने विस्तार के साथ स्वपक्ष की पुष्टि के लिए उल्लेख नहीं करते। अनुयोग द्वार के १४२वे सूत्र में दशमलव क्रम के अनुसार सरवा लिखी हुई मिलती है। जैन शास्त्रो मे जो कोडाकोडी का कथन किया गया है वह वार्गिकक्रम ने सख्याएँ लिखने के क्रम का द्योतक है। जैनाचार्यों ने मल्याओ के २६ स्थान तक बतलाये है। १ का स्थान नहीं माना है, क्योकि १ मस्या नहीं है। अनुयोग द्वार के १४वे सूत्र में इमीको स्पष्ट करते हुए लिखा है-"मे कि त गणगासबा एक्को गणण न उवइ, दुप्पभिइ मखा"। इसका तात्पर्य यह है कि जब हम एक वर्तन या वस्तु को देखते है तो मिर्फ एक वस्तु या एक वर्तन ऐमा ही व्यवहार होता है, गणना नहीं होती। इसीको मालावारिन हेमचन्द्र ने लिखा है-“Thus the Jainas begin with Tro and end, of course, with the highest possible type of infinity” जैन गणितशास्त्र की महानता के द्योतक फुटकर गणितसूत्रो के अतिरिक्त स्वतन्न भी कई गणित-पन्य ई। रैलोक्यप्रकाश, गणितशास्त्र (श्रेष्ठचन्द्र), गणित माठमी (महिमोदय), गतिसार, गणितमूत्र (महावीराचार्य), लीलावती कन्नड (कवि राजकुजर), लीलावती कन्नड (आचार्य नेमिचन्द्र) एव गणितसार (ौचर) आदि ग्रन्य प्रधान है। अभी हाल में ही श्रीधराचर्य का जो गणितमार उपलव्व हुआ है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पहले मुझे यह मन्देह था कि यह कही अजैन ग्रन्थ तो नहीं है, पर इधर जो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं उनके आधार मे यह मन्देह बहुत कुछ दूर हो गया है । एक नवसे मजबूत प्रमाण तो यह है कि महावीराचार्य के गणितसार में "धन धनर्णयोवंग! मूले स्वर्ण तयो क्रमात् । ऋण स्वरूपतोऽवर्गो यतस्तस्मान तत्पदम्"यह श्लोक श्रीधराचार्य के गणितशास्त्र का है। इसमे यह जैनाचार्य महावीराचार्य से पूर्ववर्ती प्रतीत होते है। श्रीपति के गणिततिलक पर मिहतिलक सूरि ने एक वृत्ति लिखी है। इस वृत्ति मे श्रीधर के गणितशास्त्र के अनेक उद्धरण दिये गये है। इस वृत्ति को लेखन-शैली जैन गणित के अनुसार है, क्योकि सूरि जी ने जैन गणितो के उद्धरणो को अपनी वृत्ति मे दूध-पानी की तरह मिला दिया है। जो हो, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जैनो में श्रीधर के गणितशाम्न की पठन-पाठन प्रणाली अवश्य रही यो। श्रीधराचार्य की ज्योतिज्ञान विधि को देखने से भी यही प्रतीत होता है कि इन दोनो ग्रन्यो के कत्ता एक ही है। इस गणितशास्त्र के पाटीगणित, त्रिशतिका और गणितसार भी नाम बताये गये है। इसमे अभिन्न गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, 7 पनमूल, भिन्न-समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, मागानुबन्ध, भागमातृ 'सख्या सम्बन्धी विशेष ईहास जानने के लिए देखिये 'गणित का इतिहास प्रथम भाग, पृ० २-५४ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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