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________________ ७०८ प्रेमी-अभिनवन-प्रय पुराने आभूषणो से स्वर्ण चुराने के परिकुट्टन, अवच्छेदन, उल्लेखन और पग्निर्दन ये चार प्रकार हैं। रमायनज्ञो की दृष्टि से परिमर्दन विशेष महत्त्व का हैहरिताल मन शिलाहिङ्गलफचूर्णानामन्यतमेन कुरुचिन्द चूर्णेन वा वस्त्र नयूह्ययत् परिमृद्नन्ति तत्परिमर्दनम् ॥२॥१४॥५४॥ इम प्रक्रिया में हरिताल (orpiment), मन गिला (realgar), और हिंगुल (cinnabar) मे ग्गटने का विधान है । सखिया और पारे के साथ मोने का छोज जाना यह माधारण वात है । कौटिल्य ने जिन कुरुविन्द चूर्ण का उल्लेख किया है, वह क्या है इसका पता नहीं। सुगन्धित द्रव्य - कौटिल्य अर्थशास्त्र के दूसरे अधिकरण में सुगन्धित काप्ठो का उन्लर किया गया है। इन द्रव्यो म चन्दन विशेष है। चन्दन के उत्पत्ति स्थान के अनुसार १६ भेद है-मातन, गोगीर्षक, हरिचन्दन, तार्णन, ग्रामेक, दैवमभय, जावक, जोगक, तोरूप, मालेयक, कुचन्दन, कालपर्वतक, कोगकारपवतक, शानादकीय, नागपर्वतक और शाकल । इन चन्दनो मे ९ प्रकार के रग और ६ प्रकार की गन्ध होती है। अच्छा चन्दन निम्न गुणी वाला होता है लघुस्निग्धमश्यान सपिस्नेहलेपि गन्ध सुख त्वगनुसायनुल्बणमचिराग्युष्णसह वाह ग्राहि सुखस्पर्शनमिति चन्दनगुणा ॥ (२३११२६०) अर्थात् अच्छ। चन्दन थोडा सा चिकना, बहुत दिनो मे नखने वाला, घृत के समान चिकना, देह में लिपटने वाला, सुखकारी गन्ध से युक्त, त्वचा में शोतलना देने वाला, फटा मा दाग्खने वाला, वर्णविकार से रहित, गग्मी सहने वाला और सुखस्पर्शी होना चाहिए। इसी प्रकार का वर्णन अगर, तैलपणिक, भद्रधीय (कपूर) और वालेयक (दान्हल्दी या पोला चन्दन) का भी दिया गया है। मुझे आशा थी कि कौटिल्य ने चन्दन के तेल का भा कही उल्लेख किया होता, पर मेरे देवने में नही आया। इत्रो का विवरण भी कही नहीं मिलता है यह आश्चर्य की बात है। कौटिल्य ने चार प्रकार के स्नेहो, घृतादि, का उल्लेख किया हैसर्पिस्तैलवसामज्जान स्नेहा ॥ २॥१५॥१४ ॥ घृत, तेल, वसा और मज्जा। यह भी लिखा है कि अलमी से तेल का छठा भाग तैयार होता है, नामकुश, आम की गुठलो और कपित्य से पांचवां भाग, तिलकुसुम्भ (कुमूम), मधुक (महुआ) और गुदी मे चौथाई भाग तेल प्राप्त होता है (२११५४६-५१)। यह आश्चर्य की बात है कि इस स्थल पर मग्सो, तिल, विनीला, नीम, नारियल आदि के तेलो का उल्लेख क्यो नही किया। घृतो का उल्लेख करते समय कौटिल्य ने यह लिखा हैक्षीरद्रोणे गवा घृतप्रस्य ॥ पञ्चभागाधिको महिषीणाम् ॥ द्विभागाधिकोऽजावीनाम् ।। (२।२६।३४-३६) अर्थात् गाय के १ द्रोण दूध मे १ प्रस्थ घी निकलता है, भैस के इनने ही दूध मे ५ गुना अधिक घी और भेटवकरी के दूध में एक द्रोण में दो प्रम्थ । गुप्तकाल में ४ प्रस्थ का १ श्राढक और ४ माढक का एक द्रोण माना जाता था अर्थात् १ द्रोण में १८ प्रस्थ होते है। इस दृष्टि से गाय के एक सेर दूध मे १ छटांक घी निकलता है। यह बात तो ठीक मालूम होती है। पर भैस के एक सेर दूध से ५ छटॉक घो निकलना होगा इसमें मन्देह है। हाँ, मिद्वान्त रूप से चाणक्य के निम्न दो सूत्र महत्त्व के है-मन्यो वा सर्वेपा प्रमाणम् अर्थात् मय कर देख लो कि कितना घो निकलता है, वही प्रमाण है । गौर भूमि तृणोदक निशेषाद्धि क्षीर घृत वृद्धिर्भवति ॥ (२।२६।३७-३८) अर्थात् भूमि, तृण और जल के अनुसार दूध में घी की मात्रा की कमी या वृद्धि होतो रहती है।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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