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________________ भारतीय नारी की वौद्धिक देन ६७३ इस दीक्षा की गाथा निम्न है - सिद्धार्थ गौतम के बुद्धत्व प्राप्त करने के उपरान्त महाराज शुद्धोधन जव स्वर्गत हुए तो उनकी पत्नी (रानी महामाया की छोटी बहन अर्थात् गौतम की विमाता व मौसी ) प्रजापति गौतमी गोककातर हो भगवान बुद्ध के पास गई, जो उन दिनो नन्दन-वन में निवास करते थे और मसार-त्याग की अनुमति चाही, किन्तु उम ममय बुद्ध ने उनकी प्रार्थना प्रस्वीकृत कर दी । पुन शाक्य वश को पाँच सौ नारियो ने गोतमी मे इसी अभिप्राय से चलने को कहा । तव गौतमी केशोच्छादन करवा, कापाय वस्त्र वारण कर, उन पाँच सहस्र स्त्रियों को ले बुद्ध के प्रिय शिष्य श्रानन्द की महायता ले दुवारा भगवान के समीप गईं । दुग्ख, क्लेश, क्षोभ से विह्वल उनकी जीवन-कथाएँ सुन अन्तत भगवान बुद्ध को अनुरोध स्वीकार करना पडा और गोतमी तथा वे पांच मौ नारियाँ एक साथ अभिषिक्त हुई । बुद्धवचनो मे प्रभावित यह भिक्षुणीमघ उत्तरोत्तर ग्राम, नगर, राजप्रासाद की वचुत्रो, कुलीन स्त्रियो एव कन्याग्रो की सख्या से वर्द्धित होता चला गया । इन्ही मे मे जिन विदुषियों का अन्तर स्वकथारूप में जिस करुण छन्द द्वारा भर पटा, वह 'थेरीगाथा' कहलाया । किन्तु जीवन, सौन्दर्य, प्रेम-समर्पण यादि की जो उत्कट तृषा, वैदिक, प्राकृत तथा संस्कृत कवियित्रियो मे मिलती है, थेरीयां इसके सर्वथा प्रतिकूल है, जो स्वाभाविक ही है । वे ग्रहत्यागिनि है । सासारिक इच्छाएँ ही उनके दुका मूल है | विश्व के चिर अन्दन और गहन भयानकता का उन्होने अत्यन्त सूक्ष्म और अन्तर्मुख हो स्पर्श किया है। निर्वाण-पद ही अब केवल उनके एकाकी मानस-पट का श्रालोक है । सक्षेप मे दोनो धाराओ का निम्पण इम प्रकार कर सकते हैं । एक उत्सुकता एव उमग मे पूर्ण है तो दूमरो गम्भीर और गात, एक जीवित है तो दूसरी परिपक्व, एक भौतिक जगत से परे की ओर नितान्तमुख है तो दूसरी विवेकशीला की दृष्टि में ऐहिक जगत में सर्वथा हेय है, यदि एक उनमा अलकारों आदि को मौन्दर्य पूर्ण रम-माधुरी है तो दूमरी ठोस, मरल, संयमित भाषा कटु सत्य इनका स्पष्टीकरण दोनों ओर की रम धाराओ का किंचित श्रास्वादन किये बिना न सकेगा। प्राकृत [दूत प्रति नायिकोक्ति ] जह जह वाएइ पिश्रो तह तह णच्चामि चञ्चले पेम्मे । वल्ली वलेs अङ्ग सहाव-यद्धे वि रुक्खम्मि ॥ Sy यथा यथा वादयति प्रियस्तथा तथा नृत्यामि चञ्चले प्रेम्णि । वल्ली वलयत्यङ्ग स्वभाव स्तब्धेऽपि वृक्षे ॥ [ससिप्पहाए ] [शशिप्रभा ] " जैसे-जैसे प्रियतम की लय ध्वनि वजती हैं, वैसे ही में चचल प्रेमिका नृत्य करती हूँ । प्रेम भले ही उनका दिग्ध हो, किन्तु वृक्ष यदि निश्चल सीधा खडा रहे तो लता का स्वभाव उसके चारो ओर लिपटना ही है ।" सस्कृत [दूत प्रति स्वावस्था-कथनम् ] गते प्रेमावन्ध हृदय बहु-मानेऽपि गलिते निवृत्ते सद्भावे जन इव जने गच्छति पुर तथा चैवोत्प्रेक्ष्य प्रियसखि गता स्ताश्च दिवसान् न जाने को हेतुर्दलति शतघा यत्र हृदयम् ॥ विज्जाकाया [शिखरिणी]
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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