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________________ ऋग्वेद में सूर्या का विवाह ६६३ मुख्य पात्र कन्या है, वर उतना नही, क्योकि विवाह-सस्कार के द्वारा कन्या अपना व्यक्तित्व वर के व्यक्तित्व में मिलाती है। मन्त्र निम्नलिखित है - प्रत्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशा येन त्वाऽवघ्नात् सविता सुशेव । ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेऽरिष्टा त्वा सह पत्या दधामि ।। (ऋ० १०८५५२४) हे सूर्ये, मै तुम्हें उस वरुण के पाश से छुड़ाता हूँ, जिससे सुखद सविता ने तुम्हें बांध रक्खा था। मैं तुमको जो अक्षत (सर्वथा प्रदूषित) हो, इस सत्य प्रतिज्ञा (ऋत) की वेदी पर पुण्य कर्म-युक्त जगत में जाने के लिये पति के साथ जोडता हूँ। वह वरुण (सत्य धर्म के अधिष्ठाता देव) का वन्धन, जिससे कन्या पिता के घर बंधी हुई है, कौमार जीवन का व्रत है। विवाह के समय तक कन्या 'अरिष्टा' है, उसका पवित्र कौमार्य अक्षत है। सत्य की वेदी पर उसे पति के साथ पुरोहित ने जोडा है, पुण्य कर्मों के जगत में (सुकृतस्य लोके) जाने के लिये, क्योकि पुण्य का सचय ही दाम्पत्य जीवन का आदर्श है। प्रेतो मुञ्चामि नामुत सुवद्धाममुतस्करम् । यथेयमिन्द्र मीदः सुपुत्रा सुभगासति ॥ (ऋ० १०८।२५) मै (पुरोहित) इस कन्या को इधर से (पितृकुल से) छुड़ाता हूँ, उधर से जोडता हूँ, जिससे कि हे वर्षक इन्द्र, यह कन्या पुत्रवाली और भाग्यशाली हो।। इस प्रकार कन्या पितृकुल से छूटकर दृढता के साथ पतिकुल में जुड़ जाती है । पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्रवहता रथेन । गृहान गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्व विदयमावदासि ॥ (ऋ० १०८।२६) पूषा तुम को हाथ पकड कर यहाँ से ले जाये और दोनो अश्विन तुम को (पति के घर) रथ में पहुंचाएँ। तुम पति के घर जाओ, जिससे उनके घर की स्वामिनी होकर और सारे घर को वश मे कर (वशिनी) अपने अधिकार (विदथ) की घोषणा करो। __पति के घर में पत्नी की मर्यादा और स्थिति क्या है, इस बात को यह मन्त्र बताता है । इस मन्त्र के तीन शब्द वहुत ही महत्त्वपूर्ण है। (१) 'गृहपत्नी' (घर की स्वामिनी) (२) 'वशिनी' (सव घर को वश मे रखने वाली) (३) 'विदयमावदासि' शासन अधिकार की घोषणा करने वाली (विदथ-शासन) । सायण ने 'वशिनी' का अर्थ किया है, सब घर के लोगो को वश में लाने वाली अथवा पति के वश में रहने वाली। यह स्पष्ट है कि 'वशिनी' का पिछला अर्थ वश में रहने वाली विलकुल असगत है और सायण ने अपने काल की परिस्थिति के अनुसार यो ही कर डाला है। अगला मन्त्र सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है - इह प्रिय प्रजया ते समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि । राना पत्या तन्व ससृजस्वाधा जिवी विदथमावदाथ ॥ (ऋ० १०।८।२७) इस पतिकुल में तुम्हारा प्रिय सुख-सौभाग्य सन्तानो के साथ समृद्ध हो। इस घर में तुम गृहपतित्व सबधी कर्तव्य के प्रति सजग रहो। इस पति के साथ अपने शरीर (व्यक्तित्व) को जोड कर एक कर दो और फिर दोनो एक होकर वृद्ध होने तक अपने अधिकार का पालन करो।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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