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________________ जैन-स के बीसवीं सदी के प्रमुख आंदोलन श्री परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ जैन समाज का भूत-काल कितना आन्दोलनमय रहा है, यह तो हम नही जानते, किन्तु वीसवी शताब्दी में जो खास-खास आन्दोलन हुए है, उन्ही में से कुछ का उल्लेख हम इस लेख में करेंगे। बहुत समय से हमारी यह इच्छा रही है कि जैन समाज का बीसवी सदी का एक प्रामाणिक इतिहास लिखा जाय, लेकिन खेद है कि हमारी वह इच्छा अभी तक पूर्ण नहीं हो सकी। वस्तुत इस इतिहास को वे ही भलीभांति लिख सकते है, जिनकी आँखो के आगे जैन समाज के ये पैतालीस-पचास वर्ष वीते हो । इतना ही नहीं, बल्कि जिन्होने इन दिनो में समाज के आन्दोलनो मे स्वय भाग लिया हो। हमारी दृष्टि में इस सवध मे सबसे अधिकारी व्यक्ति वा० सूरजभान जी वकील थे। वे बीसवी सदी के जैन समाज के सभी आन्दोलनो के दृष्टा थे और अनेक आन्दोलनो के जन्मदाता भी । उन्होने उस युग में, जब कि सुधार का नाम लेना भी कठिन था, ऐसे-ऐसे आन्दोलन किये जिनके सवध में आज भी इस विकास-युग में वडे-बडे सुवारक वगलें झांकने लगते है । स्व० वावू सूरजभान जी जैन समाज के आन्दोलन-भवन की नीव की ईंट थे। वे उच्चकोटि के लेखक भी थे। यदि उनके द्वारा जैन-समाज का बीसवी शताब्दी का इतिहास लिखा गया होता तो वह समाज के लिए अपूर्व चीज होती, किन्तु समाज का यह दुर्भाग्य है कि लाखो रुपये का प्रति वर्ष दान होने पर भी इस ओर कोई प्रयत्न न हो सका और आन्दोलनो के आचार्य वावू सूरजभान जी चले गये । अव हमारी दृष्टि श्रद्धेय प० नाथूराम जी प्रेमी की ओर जाती है। इस कार्य को अव वही कर सकते है क्योकि उन्होने भी वा० सूरजभान जी की भांति जैन समाज के इस युग के सभी आन्दोलन देखे हैं और उनमे से अधिकाग में स्वय भाग भी लिया है। कई आन्दोलनो के वे सृष्टा भी है। इधर के पचास वर्षों मे जैन समाज मे कई आन्दोलन हुए है, जिनमें से कुछेक का परिचय यहां दिया जाता है। (१) छापेखाने का आदोलन इस शताब्दी का जैन-समाज का यह प्रारभिक एव प्रमुख आन्दोलन था। जब जैन-प्रथो की छपाई शुरू हुई तो जैन समाज में तहलका मच गया। उसके विरोध में बडे-बडे आन्दोलन हुए। जैन-पुस्तको के प्रकाशको का वहिष्कार हुआ। उस समय छपी हुई जैन-पुस्तको को स्पर्श करने में पाप माना जाता था और उन्हें मदिरो में ले जाने की सख्त मनाई थी। इसके पक्ष-विपक्ष में कई वर्ष तक आन्दोलन चलते रहे। स्व० वाबू सूरजभान जी, स्व० बा० ज्योतिप्रसाद जी, प० चद्रसेन जी वैद्य तथा उनके कुछ साथी जैन-पुस्तकें छपा-छपा कर प्रचारित कर रहे थे और जैनसमाज का बहुभाग उनसे सख्त नाराज था। उनका बहिष्कार किया गया और जैन-धर्म के विघातक के रूप में उन्हें देखा गया। धीरे-धीरे विरोध कम होता गया। फलत जहां पहले पूजा-पाठो का छपाना भी पाप माना जाता था, वहाँ वडे-बडे आगम-अथ भी छपने लगे। यहां तक कि 'जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी' सस्था की स्थापना हुई, जिसके द्वारा गोमट्टसार और राजवार्तिक आदि वीसियो अथ छपे तथा उनका सम्पादन, अनुवाद आदि उन पडितो ने किया, जो छापे के विरोधी थे। अव तो धवल-जयधवल आदि महान आगम-अथ भी छप गये है। यद्यपि अव भी कुछ नगरी के किसी-किसी मदिर में छपा हुआ शास्त्र रखने अथवा उसको गादी पर रख कर वचनिका करने की मुमानियत है,
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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