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________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ गुरुकुल शिक्षा-पद्धति के विनाश और अग्रेजी पढाई के फल-रूप भारतवासियो के दैनिक जीवन-व्यवहार में गहरा उलट-फेर हो गया। समाज सेवा का आदर्श उठ गया । शिक्षित वर्ग का सत्कार घटता गया । श्रध्यात्म ज्ञान, चारित्रशुद्धि, सदाचारिता का लोप-सा होता गया । विलासिता, इन्द्रियभोग की लोलुपता, ईर्ष्या, छीना-झपटी यादि दुर्गुणो का प्रभाव वढता गया। विद्योपार्जन ऐहिक जीवन निर्वाह का साधन बन गया । ऐसी परिस्थिति में कुछ देशहितैषियो ने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली को फिर से जारी करने का विचार किया । श्रार्यसमाज ने कागडी (हरिद्वार) में गुरुकुल की स्थापना की । महात्मा मुशीराम ( स्वामी श्रद्धानद) ने अपना जीवन उसके लिए समर्पण किया, समाज ने लाखो रुपया दान दिया । किन्तु समाज के प्रतिष्ठाप्राप्त लोगो ने अपने बच्चो को वहाँ नही भेजा और इसी त्रुटि के कारण गुरुकुल कागडी भारतवर्ष की आदर्श सर्वोच्च शिक्षा सस्या न वन सकी। मई १९११ में जैन समाज ने हस्तिनापुर (मेरठ) में ऋषभ ब्रह्माचर्याश्रम की स्थापना की। इसके लिए महात्मा भगवानदीन तथा ब्रह्मचारी गंदन लालजी ने आत्मसमर्पण किया। समाज ने भी श्रावश्यकतानुसार पर्याप्त दान दिया। परन्तु दुर्भाग्यवश चार वर्ष वाद, १९१५, में ही कुछ पारस्परिक वैमनस्य ऐसे बढ गये कि इस श्राश्रम के सभी सस्थापको और मुख्य कार्यकर्ताओ को एक-एक करके श्राश्रम छोडना पडा । नाम के वास्ते तो ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम श्रव भी चौरासी (मथुरा) में चल रहा है, किन्तु जिस उद्देश्य से वह स्थापित किया गया था उसकी गन्ध भी वहाँ नहीं है। गुजरावाला, (पजाव), पंचकूला ( श्रम्वाला) व्यावर ( राजपूताना ) स्थानो पर जैन गुरुकुल वर्षों से चल रहे हैं मगर उनमें भी समाज के प्रतिष्ठा प्राप्त उच्च घरो के बालक प्रविष्ट नही होते और गुरुकुल स्थापना का वास्तविक उद्देश्य पूरा नही हो पाता । 1 महात्मा गांधी के शब्दो मे "समाज सेवा का उद्देश्य मनुष्यमात्र का सर्वोदय, जगत का उत्थान है। जॉन रस्किन ने 'सर्वोदय' ('Unto this last ' ) मे लिखा है कि थोडो को दुख देकर बहुतो को सुस पहुँचाने की नीति समाज-सेवा का प्रादर्श नही है । चाणक्य राजनीति जैसी है । नैतिक नियमो को पूर्णतया पालने में ही मनुष्य का कल्याण हैं । नोकर और मालिक, वैद्य और रोगी, अन्याय पीडित मनुष्य और उसके वकील, कारखानो के मालिक और श्रमजीवी मनुष्यो के बीच धन का नही, प्रेम का वन्धन होना चाहिए।" नीतिमान समाज सेवी पुरुष ही देश का धन है । अन्यान्योपार्जित धन का परिणाम दुख ही है । भोग-विलास और दूसरो को नीचा दिखाने, दयाने, दास बनाने में धन खर्च करने से गरीबी बढती है । जैन कवि द्यानतराय जी ने भी 'अकिंचन धर्म-पूजा' में कहा है, "बहुधन बुरा हू भला कहिये लीन पर उपकार सों।" ६५० समाज-सेवा का मूलमन्त्र यह है, "श्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत् ।" जो बात आप खुद नही पसन्द करते, वैसा व्यवहार दूसरे के साथ भी मत करिए । फारसी में भी कहा है, "हरचे वरख़ुद न पसदी, वादी गरा हम मपसन्द ।" अग्रेजी की कहावत है "Doto others as you wish that they should do unto you." अर्थात् — लेने-देने की तराजू एक ही होनी चाहिए। श्राजकल समाज-सेवा-भाव के प्रभाव में लेने के बाट तराजू एक और देने के दूसरे है। अपने पराए के लिए नियम विरोधात्मक बनाये जाते है । जगत् की शान्ति चाहने वाला समाजसेवक अपनी श्रावश्यकता के लिए समाज से कम-से-कम लेता है और उसके बदले में समाज को अपनी शक्तिभर अधिक-से-अधिक देता है । समाज सेवा करके उसको श्रानन्द होता है । वह समाज शोषण को पाप समझता है । जैन धर्मानुयायी का तो सारा धर्म ही जैसा प्रारभ में कहा गया है, परोपकार पर खडा हुआ है। गृहस्थ, व्रती प्रव्रती, श्रावक, ब्रह्मचारी, ऐलक, मुनि सभी को समाज सेवा-धर्म का पालन पूर्ण शक्ति से करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझ लेना चाहिए। जैनधर्मानुसार प्रवृत्ति से विश्व शान्ति स्थायी और पूर्णरूपेण स्थापित हो सकती है । किन्तु ऐसा नही हो रहा है । जैनी जैनधर्म के मूल सिद्धान्त से विपरीत मार्ग पर चल रहे है । जैनधर्म के सिद्धान्त पुस्तको श्रौर 'जैन हितैषी' समाचार-पत्र द्वारा श्री पडित नाथूराम प्रेमी ने समझाए और अब भी वे इसी प्रयत्न मे लगे
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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