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________________ वि नू और आदर्श प्रकाशक श्री भानुकुमार जैन मेरी धारणा है कि जो प्रकाशक या पुस्तक विक्रेता साहित्यिक नही है, वह सफल पब्लिशर अथवा बुकसेलर नही हो सकता । पुस्तक-व्यवसाय को मै राष्ट्र या समाज का विकाम करन वाला धन्वा मानता हूँ । दुर्भाग्य से अव यह धन्वा अनैतिक हो गया है । येनकेन प्रकारेण पैसा कमाना ही इसका ध्येय रह गया है । मुझे हर्प है कि मेरी आंखो के सामने एक ऐसा व्यक्ति है, जो प्रकाशन के इस क्षुद्रतापूर्ण उद्देश्य को अपने श्राचरण में नही ग्राने देता, जो खर्च करने में प्रत्यन्त मकोचशील है, पर रुपये का कैसा भी प्रलोभन उसे अपनी ईमानदारी से नही डिगा सकता | वडे-से-बडा व्यक्ति भी यदि उससे कहता है, "भाई, रुपये ले लो, लागत भी हमारी और बढिया-सेबढिया छपाई करो, पर हमारी किताव अपने यहाँ से प्रकाशित कर दो” तो वह उत्तर में चुपचाप पाण्डुलिपि लौटाकर विनयपूर्वक अपनी श्रसमर्थता प्रकट कर देता है । मैं नित अपनी आँखो देता हूँ और दावे के साथ कहता हूँ कि प्रेमीजी की कमाई का एक-एक पैसा ईमानदारी का पैसा है | प्रकाशन में उनका वेजा स्वायं कभी नही रहा और श्रवसरवादिता का आश्रय लेकर उन्होने कभी भी लाभ नही उठाया । वे रातदिन परिश्रम करते हैं । किमी भी महान् लेखक या अनुवादक की कृति क्यो न हो, स्वय जवतक शब्द मूल से मिलाकर सशोधित, परिमार्जित और शुद्ध नही कर लेते तबतक कोई भी पाण्डुलिपि प्रेस में नही जाती । किसी रचना को स्वीकार भी तब करते है, जब वह उनकी अपनी कसौटी पर खरी उतर आती है। बड़े नामो के प्रति उन्हें कोई श्राकर्षण नहीं हैं और पसन्द आ जाय तो साधारण लेखक की चीज भी स्वीकार करने में उन्हें झिझक नही होती | हिन्दी के माने हुए श्राचार्यो और विद्वानो की रचनाएँ कसौटी पर खरी न उतरने के कारण उन्होने लौटा दी और उन ग्रन्थकारो के कोपभाजन बने । व्यक्तिगत रूप मे ऐसे आदमियो द्वारा प्रेमीजी की श्रालोचना सुनने में आ जाती है, पर ये महानुभाव यह नही सोचते कि प्रेमीजी के इस स्वग्य और निष्पक्ष दृष्टिकोण के कारण ही हिन्दी की प्रकाशनसम्याश्रो में 'हिन्दी-ग्रन्थ- रत्नाकर' सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन संस्था मानी जाती है । प्रेमीजी ने भर्ती के ग्रन्थ नही छापे । स्वय ही हर किताव के प्रूफ देखे हैं । पुस्तको की छपाई -सफाई में बाज़ार का ध्यान रखकर उन्होने ग्राडम्बरयुक्त सजावट की बात कभी नही सोची । यह तो हुआ उनका व्यावसायिक पहलू । श्रव एक दूसरा पहलू श्रीर देखे । प्रेमीजी जैन विद्वान् है । 'जैन साहित्य और इतिहास' में उनके वे खोज - सम्वन्धी लेख है, जिनके लिए आज से तीस वर्षं पूर्व उतनी सामग्री सुलभ नहीं थी, जितनी श्राज है । श्राज तो विद्वान् लोग भी प्रेमीजी के इन लेखो का सहारा लेते है । 'महाकवि स्वयम्भू' को प्रकाश मे लाने का श्रेय महापडित राहुल सांकृत्यायन को दिया जाता है, लेकिन श्राज से पच्चीस वर्ष पूर्वं दो लेख प्रेमीजी ने उसके बारे में 'जैन- हितैषी' में लिख दिये थे, जो उनकी 'जैन साहित्य श्रीर इतिहास' पुस्तक में सकलित है। यदि प्रकाशन के कार्य में ही प्रेमीजी का समय न चला गया होता तो निश्चय ही वे स्वयं अपनी बहुत-सी मूल्यवान रचनाओ से हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि कर सकते थे । कौटुम्बिक दुखो से प्रेमीजी पिस गये है। इकलोता, निर्भीक, चरित्रवान और विद्वान् वेटा हेमचन्द्र चल वसा । उसके पहले प्रेमीजी की पत्नी की मृत्यु हो गई थी। इस पर श्वाँस जब-तब परेशान कर डालता है । अनवरत परिश्रम और अध्ययन ने भी प्रेमीजी के स्वास्थ्य को बहुत क्षति पहुँचाई है, पर उनके मनोवल, सतत् ७
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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