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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ज्ञानी बेगुनाह हो सकता है, भला नहीं। भला वनने के लिये अक्ल चाहिये । वह अज्ञानी के पास कहाँ ? ईंट, पत्थर निष्पाप है, मदिर के भगवान भी निष्पाप है, पर वे कुछ भलाई नहीं कर सकते। सव एक वरावर ज्ञान लेकर नही पैदा होते। हीरा भी पत्थर है और सगमरमर भी पत्थर, पर सगमरमर घिसने परहीरा जैसा नही चमक सकता। पढने-लिखने से समझ नही वढती। हाँ, पहिले से ही समझ होती है तो पढने-लिखने से चमक उठती है । यो सैकडो पढ़े-लिखे रुढियो मे फंस जाते है, वे दया के पात्र है। और क्या कहा जाय? आजकल की दुनिया अक्षर और अको की हो रही है, यानी वी० ए० ए० एमो० की या लखपतियो-करोडपतियो की, समझदारो की नहीं। वह सुखी जीवन में और जीवन सुख के साधनो में कोई अन्तर करना ही नही जानती। दुनिया मे समझदार नही, ऐसी बात नही है। वे है, और काफी तादाद में है, पर वे भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और विदुर आदि की तरह अक्षरो और अको को विक गये है। जो दो-एक बचे हैं, वे मस्थाएँ खोल कर अपने जाल मे आप फंस गये हैं और उन्ही के यानी अक्षरो और अको में हो गये है। अपनी औलाद की खातिर और मनुष्य-समाज की खातिर वे उस गुलामी से निकले तो दुनिया बदले और दुनिया सुखी हो। याद रहे, दुनिया ममझदारो की नकल करती है, अक्षरो और अको की नही। हमेशा से ऐसा होता पाया है और होता रहेगा। दुनिया असच की ओर दौडी चली जा रही है। कोशिश करने से विलकुल सम्भव है कि वह सच की ओर चल पड़े। दुनिया बुराई मे फंस रही है । जोर लगाने से निकल सकती है और भलाई में लग सकती है। दुनिया दिन-पर-दिन भोडी होती जा रही है। कोशिश करने से शायद मुगढ हो जाय । सत्य, शिव, सुन्दर के लिये भी क्या दासता न छोडेगी? पैसा रोके हुये है। समझदारो को वह कैसे रोकेगा? वे ऐसी अर्थनीति गढ सकते है, जिससे उन्हे मनचाहा काम मिलने लगे और पराधीन भी न रहें। रोटी-कपडे ही से तो काम नही चलता। आत्मानद भी तो चाहिए। विना उस पानद के सुख के साधनो में डूब कर भी सुख न पा सकोगे। समाज की सेवा इसी में है कि वर्तमान अर्थनीति का जाल तोड डाला जाय । ज्ञानियो को नाक रगडना छोडना ही होगा और इस जिम्मेदारी को प्रोढनाही होगा। इस विप के घडे को फोडनाही होगा। अपने को बचाना अपनी सन्तान को बचाना है । मनुष्य-समाज को बचाना है । वह कुरूपी दुनिया तुम्हारे हाथो ही सुखिया बन सकती है । और किसी के बूते सुखिया न बनेगी। . पैसा ठीकरा है । वह तुम्हें क्यो रोके ? पापी पेट रोक रहा है। पापी पेट ने समझदारो को कभी नहीं रोका। उनका जिस्म कमजोर नही होता। वे भूख लगने पर खाते है। वे काम करते है और खेलते जाते है। वे थोडा खाते है और बहुत बार नहीं खाते। वे धीरे-धीरे खाते है । वे कुदरती चीजे खाते है। जरूरत पड़ने पर हाथ की बनी भी खा लेते है। वे घर पर खाते है । वे बीमार क्यो होगे और क्यो कमजोर ? जिस्म तुम्हारा घोडा है । वह तुम्हें क्यो रोकेगा। वह तो तुम्हें आगे, और आगे, ले चलने के लिये तैयार खडा है। समाज रोक रहा है। वह क्या रोकेगा? वह घास की तरह उग खडा हुआ जजाल है । वह सूख चुका है। उसमें अव दम कहाँ ? उसमें रिवाजो के वट है सही, पर वे जली रस्सी की तरह देखने भर के है। अंगुली लगाते विखर जायेंगे। समाज समझदारो को अपने रास्ते जाने देता है।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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