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________________ जैन सस्कृति में सेवा-भाव ६३१ गौतम विचार में पड गये कि यह क्या ? भगवान की सेवा के सामने अपने ही दुष्कर्मों से दुखित पापात्माओ की सेवा का क्या महत्त्व ? धन्यवाद तो भगवान के सेवक को मिलना चाहिए। गौतम ने जिज्ञासाभरे स्वर से पूछा – भन्ते । यह कैसे ? दुखितो की सेवा की अपेक्षा तो आपकी सेवा का अधिक महत्व होना चाहिए ? कहाँ सर्वथा पवित्रात्मा आप भगवान् और कहाँ वे पामर प्राणी । 1 भगवान ने उत्तर दिया- मेरी सेवा, मेरी श्राज्ञा के पालन करने में ही तो है । इसके अतिरिक्त अपनी व्यक्तिगत सेवा के लिए तो मेरे पास कोई स्थान ही नही है । मेरी सबसे बडी आज्ञा यही है कि दुखित जन-समाज की सेवा की जाय, उसे सुख-शान्ति पहुँचाई जाय । अत दुखितो की सेवा करने वाला मेरी आज्ञा का पालक है । गौतम । इसलिए मैं कहता हूँ कि दुखितो की सेवा करने वाला ही धन्य हैं, श्रेष्ठ है, मेरी सेवा करने वाला नही । मेरा सेवक सिद्धान्त की अपेक्षा व्यक्तिगत मोह में अधिक फँसा हुआ है । यह आदर्श है नरसेवा में नारायण सेवा का, जन सेवा में भगवान की सेवा का । जैन सस्कृति के अन्तिम प्रकाशमान सूर्य भगवान महावीर है । उनका यह प्रवचन सेवा के महत्त्व के लिए सबसे वडा ज्वलन्त प्रमाण है । भगवान महावीर दीक्षित होना चाहते हैं, किन्तु अपनी सपत्ति का गरीव प्रजा के हित के लिए उपयोग करते है और एक वर्ष तक मुनि दीक्षा लेने के विचार को लवा करते है । एक वर्ष में अरवो की सपत्ति जन सेवा के लिए अर्पित कर देते है और मानव-जाति की आध्यात्मिक उन्नति करने से पहिले उसकी भौतिक उन्नति करने मे सलग्न रहते है ।' दीक्षा लेने के पश्चात् भी उनके हृदय में दया का असीम प्रवाह तरगित रहता है । फलस्वरूप एक गरीब ब्राह्मण के दुख से दयार्द्र हो उठते है और उसे अपना एकमात्र आवरण वस्त्र भी दे डालते हैं ।" जैन सम्राट् चन्द्रगुप्त भी सेवा के क्षेत्र में पीछे नही रहे है । उनके प्रजाहित के कार्य सर्वत सुप्रसिद्ध हैं । सम्राट् सप्रति की सेवा भी कुछ कम नही है । जैन इतिहास का साधारण से साधारण विद्यार्थी भी जान सकता है कि सम्राट् के हृदय में जनसेवा की भावना किस प्रकार कूट-कूट कर भरी हुई थी और किस प्रकार उन्होने उसे कार्य स्प में परिणत कर जैन संस्कृति के गौरव की रक्षा की। महाराजा कलिंग, चक्रवर्ती खारवेल और गुर्जर नरेश कुमारपाल भी सेवा के क्षेत्र में जैन सस्कृति की मर्यादा को बराबर सुरक्षित रखते रहे हैं । मध्यकाल में जगडूशाह, पेथड और भामाशाह जैसे धनकुवेर जन-समाज के कल्याण के लिए अपने सर्वस्व की आहुति दे डालते है और स्वय कगाल हो जाते है । जैन समाज ने जन-समाज की क्या सेवा की है। इसके लिए सुदूर इतिहास को अलग रहने दीजिये, केवल गुजरात, मारवाड, मेवाड या कर्नाटक आदि प्रान्तो का एक वार भ्रमण करिये, इधर उधर खडहरो के रूप में पडे हुए ईंट-पत्थरो पर नज़र डालिये, पहाडो की चट्टानो के शिलालेख पढिये, जहाँ-तहाँ देहात में फैले हुए जन-प्रवाद सुनिये । श्रापको मालूम हो जायगा कि जैन संस्कृति क्या है ? उसके साथ जन सेवा का कितना अधिक घनिष्ठ सवध है ? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, सस्कृति व्यक्ति की नही होती, समाज की होती है और समाज की संस्कृति का यह अर्थ है कि समाज अधिक-से-अधिक सेवा की भावना से ओत-प्रोत हो, उसमें द्वेष नही, प्रेम हो, द्वैत नही, अद्वैत हो, एक रग-ढंग हो, एक रहन-सहन हो, एक परिवार हो । सस्कृति का यह विशाल आदर्श जैन संस्कृति में पूर्णतया घट रहा है । इसके लिए इसका गौरवपूर्ण उज्ज्वल भूतकाल पद-पद पर साक्षी है। मैं श्राशा करता हूँ, आज का पिछडा हुआ जैन समाज भी अपने महान् अतीत के गौरव की रक्षा करेगा और भारत की वर्तमान विकट परिस्थिति विना जाति, धर्म, कुल या देश के भेदभाव के दरिद्रनारायण मात्र की सेवा में अग्रणी भाग लेगा । १ श्राचाराग, महावीर जीवन । प्राचार्य हेमचन्द्र कृत महावीर चरित्र । २
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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