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________________ स्वावलम्बी प्रेमी जी श्री लालचन्द्र वी० सेठी लगभग,सन् १९१२ की बात है, जब प्रथम बार वम्बई में श्री प्रेमीजी से मेरी भेट हुई। उस समय 'जन-ग्रन्थरत्नाकर-कार्यालय का कार्य-सचालन करते हुए उन्होने 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय का भी कार्य प्रारम्भ कर दिया था और उस समय तक 'स्वाधीनता' व 'फूलो का गुच्छा' ये दो पुस्तकें प्रकाशित भी हो चुकी थी। उन दिनो प्रेमीजी वडी योग्यता के साथ 'जन-हितैषी' का सम्पादन कर रहे थे। मै उसे वडी रुचि से पढता था। जितने समय तक प्रेमीजी ने इस पत्र का सम्पादन किया, वडी निर्भीकता और विचार-स्वातन्त्र्य के साथ किया। 'जन-हितैषी' की फाइलो में उनके युग-सन्देश-वाहक तथा युक्तिपूर्ण लेख आज भी पढने योग्य है । प्रेमीजी की उन्नत विचारशीलता, चरित्र-निष्ठा और सुधारक मनोवृत्ति का परिचय हमें उनकी लेखनी से लिखे गये लेखो में बराबर मिलता है। . 'जैनियों में सर्व-प्रथम श्री प्रेमीजी ने ही जैन-इतिहास पर कलम उठाई। उन्होने अपने गम्भीर और विशाल अध्ययन के द्वारा जैन-प्राचार्यों का परिचय प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे वे उनका समय-निर्णय करने लगे और वाद को तो वे एक पूरे इतिहासज्ञ ही वन गये। आज समाज में जैन-इतिहास की जो इतनी विशद चर्चा दिखाई देती है, उसका प्रधान श्रेय प्रेमीजी को ही है। 'श्री माणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला' का प्रारम्भ एक छोटी-सी पूंजी से हुआ था, पर प्रेमीजी ने अपनी कुशलता और अविश्रान्त परिश्रम से लगभग पैतालीस अलभ्य और अनुपम ग्रन्थो का प्रकाशन कर उन्हें सर्वत्र सुलभ कर दिया है। आज से तीस वर्ष पूर्व सस्कृत-प्राकृत ग्रन्थो की हस्त-लिखित प्राचीन प्रतियों का प्राप्त करना, उनकी प्रेस-कापी कराना, छपाई की व्यवस्था करना, प्रूफ-सशोधन करना आदि कितना गुरुतर कार्य था, यह भुक्तभोगी लोगो से अविदित नही है। मगर अपनी सच्ची लगन और दृढ अध्यवसाय के द्वारा प्रेमीजी ने इस दिशा में एक आदर्श उपस्थित किया। उमीसे प्रेरणा पाकर आज अनेको ग्रन्थमालाएँ चालू है । 'माणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला' के अवैतनिक मन्त्री होते हुए भी प्रेमीजी ने नि स्वार्थभावं और केवल प्राचीन ग्रन्थो के उद्धार को दृष्टि में रखकर इतने मितव्यय से इसका कार्य किया है कि जिसका दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है। प्रेमीजी प्रात्म-प्रशसा और प्रसिद्धि से सदैव दूर रहे है, यहाँ तक कि मैने उन्हें कभी किसी सभा-सोसाइटी में जाते या सभापति बनते और व्याख्यान देते हुए नही देखा । पर जो भी व्यक्ति निजी तौर पर उनसे मिला, उन्होने उससे बडी स्पष्टता और ठोस युक्तियो के साथ शान्तिपूर्वक अपने विचारो का प्रतिपादन किया। प्रेमीजी ने जिस बात या विचार को सच समझा, विना किसी सकोच के स्पष्ट कहा और लिखा। व्यक्तिगत विरोध या बहिष्कार की उन्होने कभी कोई चिन्ता नहीं की और न उसके कारण उन्होने अपने विचारो को दवाया ही। ___'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' से आज तक मां सौ से भी ऊपर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। उनमे कई-एक पुस्तकें तो बिलकुल नवीन लेखको की है। प्रेमीजी ने नवीन लेखको को सदैव प्रोत्साहन दिया है । बहुत सी पुस्तको मे भाषा, भाव, अनुवाद आदि की दृष्टि से पर्याप्त सशोधन स्वय करते हुए भी उन्होने सारा श्रेय लेखक को ही दिया है । सशोधक या सम्पादक के रूप में अपना पूर्ण अधिकार होते हुए भी उन्होने कभी किसी पुस्तक पर अपना नाम नही दिया। यही कारण है कि उनके कार्यालय की निन्दा आज तक किसी लेखक से सुनने में नही आई, प्रत्युत स्व० श्री प्रेमचन्द्र जी, श्री बख्शी जी, श्री जैनेन्द्रकुमार जी आदि के द्वारा प्रेमीजी के खरे, पर प्रेममय निर्मल व्यवहार की प्रशसा ही सुनने को मिली है। प्रेमीजी के यहां से जितनी पुस्तकें प्रकाशित हुई है, वे सब छपाई, सफाई, सशुद्धि, कागज, रूप-रग आदि की दृष्टि से सर्वोत्तम रही है। शरत्-साहित्य-माला, मुशी-साहित्य, आदि जो सस्ती मालाएँ
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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