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________________ प्रेमी-प्रभिनदन प्रथ राजनैतिक रूप से क्षतविक्षत और आर्थिक दृष्टि से पिछडे हुए विन्ध्यखड की एक ही सम्पदा है और वह है वन । इसीके सहारे सरिताएँ बहती है । प्राकृतिक सौन्दर्य दिखाई देता है और अधिकाश निवासी जीविका उपार्जन करते है । इस देश की निधि, ऋद्धि-सिद्धि और लक्ष्मी जो कुछ है, उसका श्रेय यहाँ के वन और वृक्षराजि को है । विन्ध्यखड के वनो को वनविज्ञानवेत्ता पतझड वाले मानसूनी वन ( Deciduous ) मानते है । ये वन वर्ष मे सात-आठ मास तक हरे रहते है और बसन्त तथा ग्रीष्म मे इनके पत्ते झड जाते तथा छोटे-छोटे क्षुप ( पौधे ) सूख जाते है, परन्तु यह विश्वास करने के लिए प्रमाण है कि पहले यहाँ सदा हरे ( Ever - green ) वन रहे होगे, जैसे कि आजकल अराकान ब्रह्मदेश आदि में है । हमारे यहाँ सदा हरे वृक्षो मे जामुन, कदम्ब और अशोक शेष है, परन्तु ये वही पनपते हैं, जहाँ कि पानी की सुविधा हो । सदा हरे वनो के लिए ६०" वर्षा प्रतिवर्षं होनी आवश्यक है । पहले हमारे यहाँ ऐसी वर्षा होती थी। आज से तीन सौ वर्ष पूर्व तक विन्ध्यखड के वन बहुत विस्तीर्ण और सघन थे । सम्राट अकबर चन्देरी, भेलसा और भोपाल के आसपास हाथियो का शिकार खेलने आया था । ६०४ ? विन्ध्यखड के वर्तमान वन प्राकृतिक वन है और श्रव जहाँ कही है, उनमें अधिकाश इस देश की सरिताओ के अचलो मे है । बात यह है कि वन और सरिता परस्पर श्राश्रित है । जहाँ वन होगा, वहाँ पानी होगा । जहाँ पानी होगा, वहाँ वन होगा । वन और पानी का यह सम्बन्ध एक रोचक विषय है । जहाँ वन होता है, वहाँ वायुमडल में नमी ( आर्द्रता) अधिक रहती है । वर्षा के वादल जहाँ का वायुमडल आर्द्र पाते है वहाँ थमते और बरसने लगते है । इन्ही मानसूनी बादलो का एक अच्छा भाग मारवाड को पार कर हमारे यहाँ श्राता और वरसता है, परन्तु मारवाड सूखा रह जाता है । कारण कि एक तो मारवाड में पर्वत नही और दूसरे वन नही । बादल थमे तो किस तरह वन के पास के वायुमंडल में नमी का कारण यह है कि जितना पानी वर्षा मे बरसता है उसका अधिकाश भागवन की भूमि, वृक्ष की जडो और पत्तो आदि में रह जाता है । वनाच्छादित भूमि से सूर्य का प्रखरताप जितने समय में वहाँ के जल का बीस या पच्चीस प्रतिशत सोख पाता है, उतने ही समय मे वनहीन भूमि का ८० प्रतिशत के लगभग सोख लेता है । वृक्षो का शीर्ष भाग सूर्य की किरणों की प्रखरता झेल लेता है और नीचे के पानी को बचा लेता है । यह पानी भूमि को आर्द्र रखता है । विशेष जल धीरे-धीरे स्रोतो और नालो के रूप मे वह बह कर सरिताओ को सूखने से बचाता है । पत्तो की आर्द्रता तथा भूमि, स्रोतो और नालो की श्रार्द्रता हवा में नमी पैदा करती और वहाँ के तापमान को अपने अनुकूल बना कर वादलो के बरसने में सहायक होती है । यही कारण है कि वनो में और वन के श्रासपास वर्षा अधिक होती है श्रौर नदी-नाले अधिक समय तक वहते है । कुओ मे कम निचाई पर पानी मिलता है और भूमि प्राकृतिक रूप में उपजाऊ रहती है । वृक्षो से गिरे पत्ते, टहनियाँ और सूखे पदुप श्रादि सड कर भूमि को अच्छी बनाते है । वन की स्थिति नदियों और नालो पर एक प्रकार का नियन्त्रण रखती है । वर्षा की बौछार वन के शीर्षभाग पर पड़ती है और बहुत धीमे-धीमे भूमि पर वर्षा का जल श्राता है । ऐसा जल तीव्र वेग से नही बह पाता और नाले तथा ऐमी नदियाँ अपेक्षाकृत मथर गति से बहती है । वन की स्थिति भूमि को न कटने देने में सहायक होती है । जहाँ नदी के किनारे वन या वृक्षराजि होगी वहाँ नदी का पूर आसपास की भूमि को ऐसा न काट सकेगा, जैसा कि वन-हीन नदी का पूर काट देता है । इसका उदाहरण चम्बल और जमुना के कूल है। ये नदियाँ जहाँ वन-वृक्षहीन प्रदेश में बहती है वहाँ इन्होने आसपास की भूमि काट-काट कर मीलो तक गढे कर दिए है, जिन्हें 'भरका' कहते हैं । वहाँ की उपजाऊ भूमि तो ये नदियाँ बहा ले गई, परन्तु यदि इनके कूलो पर वन होते तो नदी की धारा का पहला वेग वृक्षो के तने और मूल सहते और पानी को ऐसी मनमानी करने का अवसर न मिलता । जिन पहाडियो के वन साफ कर दिए गए उनकी दशा देखें । वर्षा की बौछारें पहाडी की मिट्टी और ककरी को नीचे वहा ले जाती है । घुली मिट्टी तो पानी के साथ आगे वढ जाती है, परन्तु ककरी पहाडी के नीचे की भूमि पर जमती जाती है । पाँच-दस वर्षों मे ही नोचे की उपजाऊ भूमि रॉकड हो जाती है और पहाडी अधिक नग्न होती
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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