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________________ प्रेमी जी के व्यक्तित्व की एक झलक राय कृष्णदास प्रेमीजी को मै निकट से नहीं के बराबर जानता हूँ। फिर भी उनके व्यक्तित्व को मै जितना जानता हूँ, सम्भवत उससे अधिक उनके अत्यन्त निकटवर्ती भी न जानते होगे। इसके पीछे एक घटना है, जिसकी स्मृति पाज पच्चीस बरस बाद भी टटकी है। प्रेमीजी जिस समय प्रकाशक के रूप मे हिन्दी-जगत् के सामने आये, उस समय वह परपट पड़ा हुआ था। आज की तरह न प्रकाशको की भरमार थी, न ग्रन्थो की । पाठक ग्रन्थो के लिए लालायित हो रहे थे, हिन्दी के शुभंपी उसके भण्डार को ग्रन्थ-रत्नो से भरा-पूरा देखना चाहते थे। ऐसी परिस्थिति में 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' एक वरदान के रूप में अवतरित हुआ। उसके प्रकाशित बंगला के अनुवाद ही तव पाठको के लिए सब कुछ थे। ज़मीन तैयार हो रही थी। उतने ही से हिन्दी वाले फूले न समाते थे। इसके पहले कई प्रकाशन-योजनाएँ चालू हुई थी और अकुरित हो-होकर मारी गई थी। अतएव प्रेमीजी का समारम्भ उनके लिए तो माहस और आत्म-विश्वास का काम था ही, वाचको के लिए भी वह धडकते हुए हृदय की एक बहुत बडी आशा थी। जहां प्रकाशक और वाचक ऐसी परिस्थिति मे थे, वहां एक तीसरा वर्गभी था, जो बडी मतृष्ण दृष्टि से प्रकाशनो की ओर देख रहा था। यह वर्ग था उन लेखको का, जो मासिक पयो तक तो किसी भांति पहुंच पाते थे, किन्तु उसके आगे जिनकी रसाई न थी। वह आज का जमाना न था जब लेखको और पत्रो की भरमार तो है हो, सम्पादकीय अनुशासन भी ऐसा-ही-वैसा है। वह द्विवेदीयुग था, जब लेखको के लिए मासिक पत्र का द्वार बहुत ही अवरुद्ध पीर कटकाकीर्ण था। इसका यह तात्पर्य नहीं कि लेखक किसी प्रकार हतोत्साह किये जाते थे। वात विलकुल उलटी थी। उस समय तो आचार्य द्विवेदी जी और उनके अनुकरण में अन्य सम्पादक लेखको के तैयार करने में लगे हुए थे। फिर भी द्विवेदी जी ने लेखन का स्तर इतना ऊँचा कर रक्खा था कि सहसा किसी के लिए लेखक बन जाना सम्भव न था और न दूसरे पत्रकार ही अपने पत्र का स्तर गिराने का साहस कर सकते थे। वे यथासम्भव 'सरस्वती' को ही मानदण्ड बनाकर अपना पन चलाते थे। यही कारण था कि उन्ही लेखको की कुछ पूछ थी, जो अपना स्थान बना चुके थे अथवा जिनमें किसी विशेषता का अकुर था। ऐसे लेखको के लेख यद्यपि पाठको के ज्ञानवर्द्धन की अच्छी सामग्री होते तो भी उनमें स्थायी महत्त्व के इने-गिने ही होते थे। फिर भी उनके लेखक चाहते कि उनकी कृति पुस्तक रूप में निकल जाय । ऐसे ही एक महागय ने शास्त्र' पर एक लेखमाला 'इन्दु' में निकाली। यहाँ 'इन्दु' का थोडा-सा परिचय दे देना अनुचित न होगा। प्रसाद जी सन् १९०८ के अन्त मे नई भावनाएँ लेकर हिन्दी-ससार में आये। उनका सुरती का पैतृक समृद्ध व्यापार भी था, जिसके कारण उनका कुल-नाम 'सुधनीसाव' पड गया था। सो अपनी नई भावनायो को व्यक्त करने के लिए, साथ ही अपने पैतृक कारवार के विज्ञापन के लिए, उन्होने अपने भानजे स्व० अम्बिकाप्रसाद गुप्त से 'इदु' को सन् १९०६ के भारभ मे निकलवाया था। इस मासिक पत्र की एक अपनी हस्ती थी। प्रसाद जी की रचनामो के सिवा उनसे प्रभावित और प्रोत्साहित कितने ही नये लेखक इसमें लिखा करते थे। यद्यपि इसकी छपाई-सफाई का दर्जा बहुत ही साधारण था, फिर भी लेखो के नाते यह एक नये उत्थान का सूचक था। इसी 'इन्दु' में वे' शास्त्र' वाले लेख धारावाहिक रूप में निकले थे। विषय नया था। अतएव उसकी ओर अनेक लोगो का ध्यान गया और पत्रो में कुछ चर्चा भी हुई। जब यह लेखमाला पूरी हो गई तब लेखक महाशय ने उसका स्वत्व प्रेमीजी को दे दिया और उन्होने उसे पुस्तकाकार निकाल दिया। उस समय के विचार से उसकी अच्छी
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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