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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय ५१८ ग्रन्थ, करुणाष्टक, पचीकरण, आरतियाँ, 'मोवियो' के १४ शतक आदि कई ग्रन्थ उनके प्रसिद्ध है। दासगीता नामक एक सस्कृत-काव्य-पद्य भी उन्होने लिखा था। सज्जनगड पर १६८१ ईस्वी मे आपने समाधि ली। आपकी शिष्य-परम्परा में प्रमुख कवि-जयराम, रगनाथ, आनन्दमूर्ति, केशव ये चार स्वामी मिलाकर रामदास पचायतन पूरा होता है । ज्ञान-पचायतन, नाथपचायतन और दारूपचायतन के साथ सन्त-कवियो की परम्परा मत्रहवी सदी में आकर समाप्त होती है और हिन्दी-साहित्य मे जिस प्रकार भक्तिकाल के पश्चात् रीति-काल आता ई और उसका प्रारम्भिक रूप केशवदास जैसे भक्ति-रीति को मिलाने वाले कवियो में मिलता है, उसी प्रकार मराठी माहित्य मे भी भक्तिकाल से रीतिकाल की शृगारी-वीर-प्रवृत्तियो तक (मतिराम-भूषण जैसे 'लावणी-पोवाडे' लिखने वाले शाहीरो तक) सीधी रेखा नहीं मिलती-वह वीच-बीच में पडित-कवियो द्वारा खडित है। लालजी पेंडसे के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'साहित्य और समाजजीवन' (जिसमें मराठी साहित्य का इतिहास समाजवादी दृष्टिकोण से दिया गया है) मे इन नीन प्रकार के कवियो को, जिनके मुख्य रस थे भक्ति, शान्ति, शृगार-वीर आदि, बहुत ही सुन्दर ढग से तीन नामो मे सक्षिप्त किया गया है--सन्त-कवि, पन्त-कवि, तन्त-कवि । पन्त पडित का छोटा रूप है और ततु वाद्यो के साथ ('डफ', इकतारा आदि) गाने वाले होने से 'तन्त', या कहिए 'तन्त्र' अथवा 'रीति' की उनमें प्रधानता है, इस कारण मे 'तन्त'। प्रत्येक साहित्य के इतिहास में सिद्धान्तो के उत्थान-पतन का लेखा अनिवार्य रूप से आता ही है । जो आदर्श एक युग में पूजे जाते है, वे दूसरे युग मे निर्माल्यवत् बन जाते है और नये आदर्श उनका रिक्त स्थान ग्रहण करते है। इस एक के खडन में से दूसरे के निर्माण के सक्रान्ति काल का साहित्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। आज नो ऐसे काल का अध्ययन इसलिए और भी आवश्यक है कि हमारा यानी भारतीय साहित्य भी ऐसे ही बौद्धिक अराजक, मतमतान्तरो के मन्थन मे से गुजर रहा है। अग्रेजी गाहित्य के इतिहास में ऐसे काल-खड को 'डिकेडेट' कहते है, जिसका शब्दश अर्थ होता है 'जीर्ण-शीर्ण या गलित'। 'जीवन' की उद्दाम तरल वेगमयी प्रवहमानता को यदि रूढ नियमो के और परिस्थितियो के कृत्रिम बन्धन से रोकने का प्रयत्न किया तो कुछ अवकाश के वाद उसमें की गतिमयता नष्ट होकर, एक विकृत स्थिरता-एक प्रकार की सडाघ-एक प्रकार की साहित्य की आत्मा-भावना को गौणत्व देकर, उसके वाह्यवेष भाषा, टेकनीक (रीति) आदि से उलझने की प्रवृत्ति अनजाने ही साहित्य में घुस पडती है जो एक ओर अतिशय हानिकर तो दूसरी ओर एक अपरिहार्य बुराई के रूप मे लाभप्रद भी होती है। रामदास के पश्चात् वामन पडित और उनके पश्चाद्वर्ती कवियो का काल इसी प्रकार का था। मत-कविता जब एक भंवर मे पडी-सी जान पडी तब उसे झकझोर कर तुकाराम ने पुन उसमें सजीवता पैदा की। रामदास ने कविता की उन मजीव गति में अतिरेक निर्मित कर पुन उसे विमूर्या में जैसे डाल दिया। उसी विमूर्छन-काल का स्वप्न-रजन वामन पडित, रघुनाथ पडित और मोरोपत की सुघर, नक्कासी भरी, अति-अलकृत कविता मे हमे मिलता है। अग्रेजी साहित्य में भी रोमेटिक युग की प्रारभिक ताजगी कुम्हलाकर जव उन्नीसवी सदी के उत्तरार्द्ध मे ऐसी ही प्रवृत्ति चल पडी तव 'प्रीरेफेलाइट' कवियो की अलकरण-प्रियता स्विन्वन आदि में अत्यधिक मात्रा में फूट पडी और हिन्दी मे भी बिहारी देव, पद्माकर के दोहे-कवित्तो में उस सुघराई के लिए सुघराई के वर्ण-चमत्कार के अतिरिक्त और है भी क्या? क्या 'निराला' की गीत-रचना में पुन छायावाद के अतिरेक की वैसी ही विमूर्छना, वैसी ही श्रान्ति और एकस्वरता (मोनो टोनी) नहीं मिलती ? स्टीफन स्पेडर का 'स्टिल सेंटर' मानो सभी ओर ऐसे साहित्यिक कालखडो मे अनुगुजित है। वामन पडित भी ऐसे ही शाब्दिक नक्कासी के लोभी कवि थे। निस्सशय उनको रचना अतिशय नादमधुर है । जयदेव और विद्यापति की वह याद दिलाती है। परतु कही-न-कही ऐसा जान पडता है कि भाव भाषा मे खो गये है। भाषानुवर्ती भाव हो रहे है , जैसे कि महादेवी की उत्तरकालीन रचना मे। परन्तु मराठी साहित्य की कहानी के सिलसिले मे मै कुछ व्यक्तिगत मत मावेश कह गया, जिन्हें पाठक अप्रासगिक न मानेंगे, ऐसी आशा है। वामन पडित शेषे नादेड गाँव का था। वह सस्कृत का उद्भट पडित था। उसका बहुत महत्त्वपूर्ण अथ है
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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