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________________ प्रेमी-अभिनन्दन ग्रंथ पाठक आश्चर्य करेंगे कि इस प्रकार की उच्चकोटि की ग्रन्थमाला का न कोई स्वतन्त्र कार्यालय है और न कोई क्लर्क ग्रादि । प्रकाशन सम्वन्धी व्यवस्था श्रर पत्र-व्यवहार का कार्य प्रेमी जी अपनी दुकान की ओर से ही करने या रहे है । माला के ग्रन्थों का स्टॉक पहले प्रेमी जी की दुकान में ही रहता था, पर पुस्तको की संख्या बढ जाने तथा दुकान में स्थान की कमी पड जाने मे श्रव वह हीरावाग की धर्मशाला में रक्वा रहता है। जहाँ इस प्रकार की प्रगतिशील प्रकाशन- सम्यात्रो की व्यवस्था के पीछे मैकडों रुपये मामिक व्यय हो जाते हैं, वहा प्रेमी जी ने इस मद में ग्रन्थमाला का कुछ भी व्यय नही होने दिया । ग्रन्थमाला की इम प्रकार सर्वया नि स्वार्थभाव से मेवा करते हुए भी प्रेमी जी को पडित दल का विरोध सहन करना पडा । वात यह थी कि प्रेमी जी ग्रन्थमाला के ग्रन्थो के प्रारम्भ में जो खोजपूर्ण भूमिकाएँ लिखते थे उनमें कुछ तथ्य इस प्रकार के रहते थे, जिनमे तत्कालीन पडितदल की प्रचलित धारणाओ को ठेस पहुँचती थी और इस कारण वह न केवल उन्हे अग्राह्य ममभता था, बल्कि समाचार-पत्रो द्वारा उनका विरोध भी किया करता था। यही नही, एक वार तो इस विरोध ने इतना उग्र रूप धारण किया कि परतवाडा (वरार) की जैन- विद्वत्परिपद् में यह प्रस्ताव पेश किया गया कि प्रेमी जी के पास से ग्रन्थमाला का कार्य छीन लेना चाहिए, क्योकि प्रेमी जी सुधारक है और अपने सुधारक विचारो का ग्रन्थो मे समावेश कर सकते है । परन्तु यह एक आश्चर्यजनक घटना थी कि इस प्रस्ताव का विरोध उस समय के पडितदल के नेता (स्वर्गीय) प० धन्नालाल जी ने किया और वह प्रस्ताव पास नही हो सका । प्रस्ताव के विरोध में पंडित जी ने कहा था- "प्रेमी जी चाहे जैसे विचारो के हो, परन्तु वह जान-बूझ कर ग्रन्थो में एक अक्षर भी न्यूनाधिक नहीं कर सकते। फिर तुम लोगो मे से कोई तैयार भी है, जो उस काम को उन जैसे नि स्वाभाव से चला सके 1" ५१२ ग्रन्थमाला की आर्थिक स्थिति जैसा कि प्रारम्भ मे लिखा जा चुका है, ग्रन्थमाला के कार्य को चलाने के लिए सेठ माणिकचन्द्र जी की शोक सभा के अवसर पर माढे चार हजार रुपये का चन्दा एकत्र हो गया था, परन्तु जव यह द्रव्यराशि पर्याप्त प्रतीत नही हुई तो जैन समाज के अन्य साहित्य प्रेमी श्रीमानो से सहायता ली गई। स्वर्गीय ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने भी इस प्रन्थमाला को एक वार उल्लेखनीय सहायता दिलवाई और जीवनपर्यन्त ग्रन्थमाला की कुछ-न-कुछ सहायता कराते ही रहे । ग्रन्थ जव ययेष्ट सख्या मे प्रकाशित हो गये तब यह नियम वनाया गया कि कम-से-कम एक सौ एक रुपया देने वाले महानुभाव माला के स्थायी सदस्य समझे जायँ और उन्हें पूर्वप्रकाशित तथा आगामी प्रकाशित होने वाले ममस्त ग्रन्थ भेट में दिये जायें। इस प्रकार माला के सदस्य भी वढने लगे और सव प्रकार की सहायता से कुल वार्ड महल रुपया ग्रन्थमाला को प्राप्त हुग्रा, जो माला के प्रकाशन प्रोर सम्पादन श्रादि की व्यवस्था में लगाया गया । 'न्यायकुगुदचन्द्रोदय' तथा 'महापुराण' जैसे विशालकाय ग्रन्थो के प्रकाशन में तो माला का समस्त रुपया समाप्त हो चुका था तथा उसे ऋण भी लेना पडा था, परन्तु श्रव वह ऋण चुक गया है और दो- एक ग्रन्थो के प्रकाणित होने योग्य रुपया भी सचित हो चुका है । 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' जैसी प्राचीन और महत्त्वपूर्ण सस्था की इस प्रकार की आर्थिक स्थिति सन्तोषजनक नही है । आशा है, जिनवाणी के भक्तो का ध्यान इस ओर आकर्षित होगा । प्रेमी जी ने जिस श्रध्यवसाय, श्रम, प्रामाणिकता, कुशलता और नि स्वार्थभाव से 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' का कार्य सम्पादित किया है और इससे ग्रन्थमाला के गौरव की जो श्रीवृद्धि हुई है उसका उल्लेख जैन साहित्य के प्रकाशन के इतिहास में सुवर्णाक्षरो में श्रकित रहेगा । जव तक भारती के भव्य मन्दिर में 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' का एक भी प्रकाशन विद्यमान है, सेठ माणिकचन्द्र श्रमर है, साथ ही प्रेमी जी भी । काशी ]
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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