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________________ 'जैन - सिद्धान्त-भवन' के कुछ हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थ ५०१ ५ ब्रह्मबावनी - इसमे कविवर निहालचन्द ने वैराग्य और अध्यात्मसम्वन्धी विषय वडे ही सुन्दर और मनोरजक ढग से समझाए है । सर्वत्र शब्दालकार की अनुपम छटा दिखाई देती है । भाषा भी भावमयी और प्रौढ मालूम पडती है । प्रोकार मन्त्र का वर्णन कवि ने कितने अच्छे ढंग से किया है सिद्धन को सिद्धि, ऋद्धि देहि सतन क महिमा महन्तन को देत छिनमाही हैं । जोगी को जुगति हूँ मुकति देव, मुनिन कूं भोगी कूं भुगति गति मति उन पाँही है ॥ चिन्तामनरतन, कल्पवृक्ष, कामधेनु सुख के समाज सब याकी परछाही है । कहै मुनि हर्षचन्द निर्ष देय ग्यान दृष्टि उकारमत्र सम और मत्र नाहीं है ॥ इस प्रकार कवि ने केवल वावन पद्यो मे ही अध्यात्म-रम के सागर को गागर में भर कर कमाल कर दिखाया है । कवि की भाषा सरस और परिमार्जित है । शब्दालकार की कला के तो वे अनुपम जडिया प्रतीत होते है । थोडे से ही पद्य उपदेश-कला के योग्य एव कण्ठस्थ करने लायक है और जैन हिन्दी कवियो की अनुपम कविता रूपी पुष्पमाला में पिरोने के लिए तो ये कुछ मूगे के दाने हैं । ६ जलगालनविधि -- इसमें ३९ पद्य है । प्रति का कलेवर तीन पत्र है । प्रति से लेखक का परिचय प्राप्त नही होता, पर ३१वे पद्य के वाद इतना लिखा पाया जाता है--'भट्टारकशुभकीर्ति तस्सीष्यमेघकीर्ति लिखितम् ।' लेखक के मतानुसार ऊँच-नीच वर्ण वालो के कुए पृथक्-पृथक् होने चाहिएँ । जहाँ स्मशान भूमि हो वहाँ का पानी नही लेना चाहिए। यथा नीर तीर जह होइ मसाण, सो तजि घाट भरु जल आणि । धान जल जो रहि घट दोह, सो जल चुनि अनगालु होइ ॥ उपर्युक्त पद्य से स्पष्ट है कि ग्रन्थ की भाषा राजस्थानी है । रचना साधारण है । ७ स्वरूपस्वानुभव-यह हिन्दी का गद्य ग्रन्थ है । लिपि सुन्दर है । पृष्ठ १४ है । अन्त में अन्तराय कर्म का वर्णन है, पर इससे यह पता नही चलता कि ग्रन्थकार ने इतना ही ग्रन्थ लिखा है या यह ग्रन्थ अधूरा है । वीचवीच में दस सुन्दर चित्र है । पहला चित्र दसों दिशाओ का है, फिर क्रम से आठो कर्मों के चित्र दिखलाये गये है, जिनसे उस समय की चित्रकला का अच्छा परिचय मिलता है । कला-प्रेमी अन्वेषक विद्वानो को इसे अवश्य देखना चाहिए । सम्भव है, उन्हें जैन चित्रकला के सम्वन्ध में अच्छी सामग्री मिल जाय । भाषा में सुन्दर संस्कृत, तत्सम शब्दो की बहुलता है । ग्रन्थकर्ता ने मोक्षद्वार, जीवद्वार, अजीवद्वार और ध्यानद्वार- इन द्वारो से स्वानुभाव का स्वरूप समझाया है । ८ हरिवंशपुराण चौपईवन्द -- पृष्ठ १२८ | प्रति जीर्णशीर्ण दशा में है । लिपि अस्पष्ट एव बीच मे मिट गई है । ग्रन्थ के कुछ पृष्ठ भी नष्ट हो गये है । ग्रन्थ से ग्रन्थकर्त्ता का कोई विशेष परिचय नही मिलता है, पर ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के अन्त में "इतिश्री हरिवशपुरानसग्रहे भविमगलकरणे श्राचार्य जिनसेन विरचिते तस्योपदेशे चौपही श्री शालिवाहन ते प्रथम नाम सन्धि ।” लिखा है, जिससे प्रतीत होता है कि जिनसेनाचार्य कृत हरिवशपुराण के आधार पर कवि ने प्रकृत ग्रन्थ को चोपई छन्द मे लिखा है । ग्रन्थ मे २१ सन्धि है - भाषा, भाव तथा रचना साधारण है । ६ यशोधरचरित - पृष्ठ १०७, पद्य ८८७ और सन्धि ५ हैं । लिपि सुन्दर और सुवाच्य है । लेखक का नाम प० लक्ष्मीदास है | सकलकीर्ति विरचित संस्कृत यशोधरचरित तथा पद्मनाभ कायस्थकृत यशोवर के आधार पर यह ग्रन्थ बनाया गया है । ग्रन्थकार के श्रतिम लेख से जाना जाता है कि यह गन्य सागानेर नगर मे राजा जयसिह के राजत्वकाल में लिखा गया है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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