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________________ अभिनव धर्मभूषण और उनकी 'न्यायदीपिका ४६७ व्यक्तित्व और कार्य आचार्य धर्मभूषण के प्रभाव एव व्यक्तित्वसूचक जो उल्लेख मिलते है, उनसे मालूम होता है कि वे अपने समय के सबसे बडे प्रभावक और व्यक्तित्वशाली जनगुरु थे। प्रथम देवराय, जिन्हें 'राजाधिराजपरमेश्वर' की उपाधि थी, धर्मभूषण के चरणो में मस्तक झुकाया करते थे। पद्मावती वस्ती के शासनलेख में उन्हें बडा विद्वान् एव वक्ता प्रकट किया गया है। साथ मे मुनियो और राजानो से पूजित बतलाया है। इन्होने विजयनगर के राजघराने में जैनधर्म की अतिशय प्रभावना की है। हम तो समझते है कि इस राजघराने में जो जैनधर्म की महती प्रतिष्ठा हुई है उसका विशेष श्रेय इन्ही अभिनव धर्मभूषण जी को है, जिनकी विद्वत्ता और प्रभाव के सव कायल थे। इससे स्पष्ट है कि अभिनव धर्मभूषण असाधारण प्रभावशाली व्यक्ति थे। जैनधर्म-प्रभावना उनके जीवन का विशेष उद्देश्य रहा, पर ग्रन्थरचनाकार्य में भी उन्होने अपनी शक्ति और विद्वत्ता का बहुत ही सुन्दर उपयोग किया है। आज हमे उनकी एक ही अमर रचना प्राप्त है और वह 'न्यायदीपिका' है, जो जैनन्याय के वाङ्मय में अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए है और ग्रन्यकार की धवलकीत्ति को अक्षुण्ण रक्खे हुए है। उनकी विद्वत्ता का प्रतिबिम्ब उसमें स्पष्टतया आलोकित हो रहा है। न्याय-दीपिका' छोटी-सी रचना होते हुए भी अत्यन्त विशद और महत्त्वपूर्ण कृति है और उसकी परिगणना जैनन्याय के प्रथम श्रेणी के ग्रन्थो में किये जाने के पूर्णत योग्य है। इसमें प्रमाण और नय का बहुत ही विशदता के साथ विवेचन किया गया है, जो उसके पाठक पर अपना प्रभाव डाले विना नही रहता। अभिनव धर्मभूषण ने इसके सिवाय भी और कोई रचना की या नही, इसका कुछ भी पता नही चलता, पर 'न्यायदीपिका' में एक स्थल पर 'कारुण्यकलिका' का इस प्रकार से उल्लेख किया है कि जिससे अनुमान होता है कि न्यायदीपिकाकार अपनी ही दूसरी रचना को देखने का वहाँ इगित कर रहे है। यदि सचमुच में यह ग्रन्य भी न्यायदीपिकाकार की रचना है तो मालूम होता है कि वह 'न्यायदीपिका' से भी अधिक विशिष्ट एव महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ होगा। अन्वेपको को इसका अवश्य ही पता चलाना चाहिए। अभिनव धर्मभूषण के प्रभाव और कार्यक्षेत्र से यह भी मालूम होता है कि उन्होने कर्णाकदेश के उपर्युक्त विजयनगर को ही अपनी जन्म-भूमि बनाई होगी और वही उनका शरीर-त्याग एव समाधि हुई होगी, क्योकि वे गुरुपरम्परा से चले आये विजयनगर के भट्टारकी पट्ट पर आसीन हुए थे। यदि यह ठीक है तो कहना होगा कि उनके जन्म और समाधि का स्थान भी विजयनगर है । सरसावा ] २देखिए 'मेडीवल जैनिज्म', पृ० २६९ 'प्रपञ्चितमेतदुपाधि निराकरण कारुण्यकलिकायामिति विरम्यते ।-न्यायदीपिका, पृ० १११ (वीरसेवामन्दिर, सरसावा से प्रकाशित)। ६३
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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