SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 516
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८१ जैन-साहित्य का भौगोलिक महत्त्व उल्लेखनीय स्थानो का विवरण पाया जाता है। छोटे-छाटे दर्शनीय स्थानो का अन्यत्र कही भी इतिहास नही मिलता। उनका भी इनमे परिचय होने से उन स्थानो के समय, स्थान आदि का निर्णय करने के लिए महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती है। नगर वर्णनात्मक गजल साहित्य का निर्माण १७वी शताब्दी से होता है । उपलब्ध गजलो मे सबसे प्राचीन जटमल नाहररचित लाहौर गजल है। इसके पश्चात १८वी शताब्दी मे कवि खेतल ने उदयपुर (स० १७५७) एव चित्तौड (१७४८) की गजल, उदयचन्द्र ने बीकानेर गजल (१७६५), यति दुर्गादास ने मरोठ गजल (१७६५), लक्ष्मी चन्द्र ने आगरा गजल (१७८१), निहाल ने वगाल (१७५२ से १५) गजल बनाई। अनन्तर १९वी शताब्दी में तो वीसो गजले जैन कवियो ने बनाई है, जिनका परिचय स्वतत्र लेखो में दिया जायगा। ग्रामनगरो के अन्य ऐतिहासिक साधनो मे श्रीपूज्यो के दफ्तर,' आदेशपत्र, समाचारपत्र, विज्ञप्तिपत्र, दूतकाव्य वशावलिए, ऐतिहासिक काव्य (जैन प्राचार्यों, मुनियो और श्रावको की जीवनी के रूप में प्रथित) पट्टावलियां, उत्कीर्ण लेख और प्रशस्तियाँ प्रादि मुख्य है । इनके द्वारा नगरो की ही नहीं, छोटे-छोटे ग्रामो की प्राचीनता, स्थान अवस्थिति, प्राचीन नाम व उसका रूप एव वहां के निवासियो का पता चल सकता है, जो कि अन्यत्र दुर्लभ है । सक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जैन साहित्य का ऐतिहासिक महत्त्व के साथ-साथ भौगोलिक महत्व भी बहुत है । अत प्राचीन भूगोल और इतिहास के प्रेमी विद्वानो को इस अमूल्य साहित्य से समुचित लाभ उठाना चाहिए, जिससे भारतीय साहित्य के एक अग की पूर्ति हो जाय।। 'जैन साधुओ के आचार-विचार बडे ही कठोर है। उनका यथारीति पालन न कर सकने के कारण जैनेतर मठाधीशों की भाति श्वेताम्बर समाज में भी श्री पूज्य, दिगम्बर समाज में भट्टारक नाम से सबोधित जैन नेतागच्छनायक सैकडों वर्षों से होते आये है । ये जहां-जहां पधारते थे, उनके अनुयायी श्रावक उनकी विविध प्रकार से भक्ति करते थे। अत ये अपने विहार (भ्रमण) की डायरी व प्रावश्यक घटनाओ के रेकार्डरूप दफ्तर बही लिखकर रखने लगे, जिनमें कब कौन से ग्रामनगर में गये, वहां किस श्रावक ने क्या भेंट किया, भक्ति की, किसे दीक्षा दी गई, कहाँ मदिरो की प्रतिष्ठा हुई, इत्यादि प्रावश्यक बातो को अपनी दफ्तर बहियो में लिख लेते थे। ऐसे दफ्तर इतिहास के अनमोल साधन है । पर खेद है इनमें से एक भी अभी तक प्रकाश में नहीं पाया। हमें ऐसे ४-५ दफ्तर देखने का सुयोग मिला है, पर सकोचवश दफ्तर जिनके पास है वे प्राय बतलाते नहीं, न नकल या प्रतिलिपिही करने देते है । आपसी फूट और अज्ञानतावश बहुत से दफ्तर अब नष्ट भी हो चुके है। फिर भी जितने बच पाये है, प्रयत्न कर प्राप्त किये जायें तो बहुत ही अच्छा हो। गच्छनेत्ता अपने शिष्यादि को जहां-जहां जाकर धर्मप्रचार करने की प्राज्ञा पत्रों द्वारा देते थे ऐसे पत्रो को 'प्रादेशपत्र कहते है। चातुर्मास के समय अपने अनुयायी समस्त मुनिमडल की सूची बनाई जाती, जिसमें किन-किन के चातुर्मास कहां है, लिखा जाता था। उस पत्र को विजयपट्टा, क्षेत्रादेश पट्टक कहा जाता है। पर्युषण पर्व एव विहार आदि के समाचार श्रावकादिसप को दिये जाते, उन्हें 'समाचार पत्र' कहा जा सकता है। ऐसे हजारो पत्र अज्ञानता से नष्ट हो चुके । इनमें से खरतर गच्छ के जितने पत्र हमें प्राप्त हो सके। हमने अपने 'अभय जैन ग्रन्थालय' में सगृहीत किये है। पत्रों का इतना विशाल सग्रह शायद ही कहीं हो। ऐसे आदेशपत्र एव क्षेत्रादेशपट्टक जैन साहित्य सशोधक एव जैन सत्यप्रकाश में थोड़े से प्रकाशित हुए है। अवशेष-नष्ट होते हुए इन ऐतिहासिक साधनभूत पत्रों का सग्रह एवं प्रकाशन परमावश्यक है। 'प्रत्येक जाति एव गोत्र को वशावलियां भाट, कुलगुरु आदि लिखते चले आ रहे है। फलत अनेक वशावलियाँ पाई जाती है, पर अभी तक वे सभी प्रकार में पड़ी है। जैन जाति को वशावलि में केवल एक वशावलि जैन साहित्य सशोषक एव प्रात्माराम शताब्दी स्मारक ग्रन्थ में प्रकाशित हुई है।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy